Skip to main content

Full text of "Vishaakhadtt"

See other formats


विशाखदत्त 


अस्तर पर छपे मूर्तिकला के प्रतिरूप में राजा शुद्धोदन के दरबार का वह दृश्य है, जिसमें 
तीन भविष्यवक्ता भगवान बुद्ध की माँ--रानी माया के स्वप्न की व्याख्या कर रहे हैं । 
उनके नीचे बैठा है मुंशी जो व्याख्या का दस्तावेज़ लिख रहा है । भारत में लेखन-कला का 
संभवतः यह सबसे प्राचीन और चित्रलिखित अभिलेख है। 


नागार्जुनकोण्डा, दूसरी सदी ई० 
सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय नयी दिल्ली 


भारतीय साहित्य के निर्माता 


विद्ञाखदत्त 


मातृदत्त त्रिवेदी 


है 


साहित्य अकादेमी 


एगदांधावरबंदाव ; 4 तराणा02/9॥ जा एा€ ९३5८१) $ शारदा पक्वाशाऊ 
0१ था एपा4 पाएटत, 5५३ 50808, १९ए 0॥॥ 


क्ष5 


जि 
| जाए #8॥0 60] 
#6४5७६ शाद€ 8, 5,.60 


(8 साहित्य अकादेमी 


प्रथम संस्करण : 986 
द्वितीय संस्करण : 988 
तृतीय संस्करण :; 992 


साहित्य अकादेमी 


प्रधान कार्यालय 


रवीन्द्र भवन, 35, फ़ीरोजशाह मार्ग, नयी दिल्‍ली-0 00॥ 
विक्रय विभाग : स्वाति', भन्दिर मार्ग, नयी दिल्‍ली-0 007 


क्षेत्रीय कार्यालय 


जीवन तार बिल्डिंग, चौथा तल, 230/44 एक्स, डायमंड हार्बर रोड, 
कलककत्ता-700 053 

गूना बिल्डिंग द्वितीय तल ने, 304-305, अन्नासलाई तेनामपेट, 
मद्रास-600 0१8 

72, मुम्बई मराठी ग्रन्थ संग्रहालय मार्ग, दादर, मुम्बई-400 04 
ए.डी.ए, रंगामंदिरा, 709 जे.सी. रोड, बंगलौर-560 002 


मूल्य 
| झधाएी ग#0 दंत 
हहश५560 #॥(६॥5. 5.00 
मुद्रक 
विमल ऑफसैट 
नवीन शाहदरा, दिल्‍ली-0 032 


अनुक्रम 


विशाखदत्त : जीवनबुत्त और कृतित्व 7 
समय-निरूपण 7 
विशाखदत्त की बहुज्ञता 25 
मुद्राराक्षस : इतिवुत्त और स्रोत 35 
विशाखदत्त : कवि और नाटककार 49 
मुद्राराक्षत का नाटकीय वैशिष्ट्य 64 
चरित-चित्रण 7 
विशाखदत्तकालीन मानव-समाज 9 
तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति 00 


संदर्भ ग्रंथ-स्‌ ची 06 


विद्वाखदत्त : जीवनवृत्त और कृलित्व 


जयच्ति ते सुकृतिनो रससिद्धा: कवीश्वरा: | 
तास्ति येषां यश: काये जरामरणजं भयम्‌ ।॥ 


(नीतिशंतक, श्लोक 20) 


संस्कृत के अप्रतिम नाठक 'मुद्राराक्षस' के प्रणेता विशाखदत्त भी एक ऐसे 
रससिद्ध कवीश्वर हैं, जिनका यश: शरीर आज भी उनकी इस महनीय कृति के 
कारण हम लोगों के बीच विद्यमान है। संस्कृत में भास, शुद्रक, कालिदास, 
भट्टनारायण और भवभूति आदि अनेक नाट्यकार हो गये हैं, लेकिन पूर्णतः 
राजनी तिप्रधान नाठक की रचना करने से जो यश विशाखदत्त को मिला है, वह 
संभवतः किसी को नहीं मिला। एच. एच. विल्सन ने हमारे नाटककार को 
कालिदास और भवशभूति से हेय बताते हुए यह कहा है कि विशाखदत्त की कल्पना- 
शक्ति उन दोनों कवियों की ऊँचाई को नहीं पाती ) इनकी कृति में कठिनता से 
कोई शानदार या सुन्दर विचार मिलेगा ।! यह ठीक है कि कालिदास की भाषा 
और भावों की नैसगिक सुकुमारता तथा भवभूति की हृदयस्पर्शी करुणा 
विशाखदत्त की कृति में नहीं पायी जाती, लेकिन नाटकीयता, चरित-चित्रण 
की उदात्तता, परिस्थिति के अनुसार घटनाओं को सर्जेनात्मकता एवं रसभावादि 
की सुन्दर योजना आदि अनेक गुणों के कारण यह नाटक किसी भी प्रकार हेय 
नहीं है। वस्तुत: कालिदास और भवभूति से विशाखदत्त की तुलना करना इस 
दृष्टि से समीचीन नहीं है, क्योंकि कालिदास के नाटक ख़्ंगाररस-प्र धान हैं और 
भवभूति का उत्तरराभचरित, जिससे इनकी सर्वाधिक ख्याति है, करुणरस- 
प्रधात । विशाखदत्त का नाठक इन दोनों से भिन्‍त राजनीति-प्रधान है, जिसमें 


. 'सेलेक्ट स्पेसिमेग्स ऑन द थियेटर अपव द हिन्दूज', खण्ड [| 


8 विशाखदत्त 


आदि से अन्त तक चाणक्य की कूटनीति श्रपडिचत की गयी है, जैसा कि प्रसिद्ध 
टीकाकार ढुंढिराज ने प्रारम्भ में कहा है-- 


अत्यदुभुतविधादत्र संविधानान्महाकबि: । 
प्रपमण्चपचति चाणक्यमुखेंन कुटिल॑ नयम्‌।। 
>< >< >८ 


कलौ पापिनि कौटिल्यनीति: सद्यः फलप्रदा। 
इत्यभिप्रेत्म कौटिल्यस्तामेवात्र प्रयुकतवान्‌॥। 


यद्यपि भास के प्रतिज्ञायौगन्धरायण' का कथानक भी कुछ कूठनीति से 
युक्त है, लेकिन' वह 'मुद्राराक्षस” की प्रखरता के सम्मुख नहीं टिक पाता। यह 
कहने में किसी भी प्रकार की भत्युक्ति न होगी कि चाणक्य की कूटनीति से 
संवलित जिस नाट्यकला का इसमें निदर्शन है, वह अन्य नाठकों में स्वंथा 
अनुपलब्ध है। आज चाणक्य का जैसा स्वरूप और स्वभाव हमारे मानस" 
पटल पर अंकित है, वह मुख्यतः इसी नाठक की देन है। चाणक्य की कूटनीति 
की योजना जैसी इस नाटक में है, बैसी इसके आकर ग्रन्थों---बू हत्कथा के संस्कृत 
रूपान्तर, क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामझजरी' तथा सोमदेव के “कथा सरित्सागर' 
एवं 'विष्णुपुराण' और “्रीमद्भागवत' भादि में कहीं भी देखने को नहीं 
मिलती | इस सम्बन्ध में ढुंढिराज के ये शब्द स्मरणीय हैं, जो उन्होंने अपनी 
व्याख्या के अच्त में कहे हैं--- 


मुद्राराक्षसनाटक॑ लिखितवानू कौटिल्यनीते: कलां। 
गन्तुं यत्र विहारिणों प्लवनतो नीत्यम्बुधो सज्जना:।। 


वंश-परिचय 

संसक्षत के अधिकांश कवियों की भाँति विशाखदत्त ने भी अपने विषय में 
विस्तृत जानकारी नहीं दी। उन्होंने प्रारम्भ में सूत्रधार के मुख से केवल इतना 
कहलाया है कि वह सामन्‍्त बटेश्वरदत्त के पौत्र हैं और उनके पिता का नाम 
भास्करदत्त या पृथु है, जो महाराज कहलाते थे। यद्यपि मुद्राराक्षत की कुछ 
हस्तलिखित प्रतियों और सुभाषित ग्रन्थों में इनका विशाखदेव नाम भी मिलता 
है, लेकिन पिता और पितामह के नामों के आधार पर विशाखदत्त नाम ही 
अधिक समीचीन प्रतीत होता है। इनके पिता के नाम के विषय में विद्वानों में 
बड़ा वैमत्य है। कुछ पाण्डुलिपियों में 'महाराजभास्करदत्तसूनो: पाठ मिलता 
है और कुछ में 'महाराजपदभाकपृथुसूनों:। काशिनाथ व्यम्बक तेलंग और प्रो. 


विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व 9 


के, एच. ध्रूव ने 'भास्करदत्त' पाठ को ही ढीक माना है; जबकि मोरेश्वर 
रामचन्द्र काले और शारदारञजन राय ने 'पृथु' पाठ को ! 

वस्तुतः यह भूल प्रो. विल्सन से प्रारम्भ हुई, जिन्होंने 'पृथ” पाठ को शुद्ध 
मान उन्हें अजमेर का चौहानवंशीय राजा 'पृथुराज” बताया है ।? लेकिन 
उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि इसके साथ वटेश्वरदत्त नाम समानता की 
दृष्टि से कठिनाई उपस्थित करता है। तेलंग ने वहीं प्रस्तावना में इसका खण्डन 
करते हुए यह कहा है कि चौहानवंशीय पृथु 'पूथुराय”' या 'पृथुराज' के रूप में 
जाने जाते हैं, जबकि यहाँ उन्हें महाराज कहा गया है। अत: विशाखदत्त के 
पिता अजमेर के पृथुराय नहीं हो सकते । प्रसिद्ध जम॑न विद्वान्‌ अलूफ्रेड हिल्ले- 
ब्राण्ट (8066 प्लां॥०७४७॥0॥) ने स्वसम्पादित मुद्राराक्षस में 'भास्करदत्त' 
पाठ को ही शुद्ध माता है। निस्सन्देह विशाखदत्त के पिता ने अत्यधिक उन्नति 
कर महाराज की पदवी प्राप्त की, जबकि उनके पिता केवल सामनन्‍्त ही ये। 
सामन्त और महाराज में विशेष अन्तर है, जिसे शुक्रनीति में इस प्रकार स्पष्ट 
किया गया है-- 


लक्षकर्षमितों भागो राजतो यस्य जायते ) 
बत्सरे वत्सरे नित्य॑ प्रजानां त्वविपीडनैं: ॥ 


सामन्त: स नृपः प्रोक्‍्तो यावल्लक्षत्रयावधि । 
तदृध्व॑ दशलक्षान्तो नूपो माण्डलिक: स्मृतः ।। 


तदृष्व॑ तु भवेद्राजा यावद्विशतिलक्षक: । 
पञ्चाशल्लक्षपयंन्तो महाराज: प्रकी तितः ॥। 
(शुक्रनीति (/83-8 5) 


अर्थात्‌ जिसे अपने राज्य से प्रजा को बिता कष्ट दिये हुए एक लक्ष रजत 
कर्ष (चाँदी का सिक्का) से लेकर तीन लक्ष तक वाधिक कर मिलता हो, 
उसे सामनन्‍त कहते हैं। पुनः: दशलक्ष पर्यन्‍्त वाषिक कर मिलने परु वह 
माण्डलिक राजा और बीस लक्ष तके वार्षिक कर मिलने पर राजा कहलाता है। 
तत्पश्चात्‌ पचास लक्ष तक वाधिक कर प्राप्त करने से वह व्यक्ति महाराज पद 
का भागी होता है । इससे स्पष्ट है कि विशाखदत्त के पिता न्ते अत्यधिक उच्तति 
की और अपने को 'महाराज' सम्मानसूचक पद से अलंकृत किया । अतः 





2. 'द थियेटर आँव दे हिन्दूज, खण्ड [[, पृ० 28 
तेलंग द्वारा सम्पादित मुद्राराक्षस को भूमिका, पृष्ठ |2 


]0 विशाखदत्त 


विशाखदत्त ते अपने पिता के वैभवपूर्ण काल में जीवन-यापन किया और राजनैतिक 
चातुरी अजित की, जिसकी झलक मुद्रा राक्षस में स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर होती 


है। 
जन्मस्थान 


संस्कृत के अधिकांश कवियों की भाँति विशाखदत्त का भी जन्म-स्थान 
अज्ञात है। यह निश्चिचत रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह किस प्रान्त के 
रहनेवाले थे; लेकिन अपने नाठक में उन्होंने उत्तर भारत का जैसा भौगोलिक 
चित्रण किया है, उससे पता चलता है कि वह निःसन्देह उत्तर भारत के ही निवासी 
थे। वह पश्चिम में पारसीक (फ़ारस) देश से लेकर पूर्व में बंगाल तक के भू-भाग 
से भली-भाँति परिचित थे | पर्व॑तक-पुत्र मलयकेतु की सेना में कुलूत, मलय, 
कश्मीर, सिन्धु और पारसीक देश के राजा और उत्तकी सेनाएँ सम्मिलित थीं ।* 
ये सभी देश भारत के उत्त र-पश्चिम में अवस्थित थे। चन्द्रगुप्त और परवव॑तेश्वर 
की सेनाओं ने जब पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया तो उस समय उनमें शक, 
यवन, किरात, कास्थोज, पारसीक और वाह्वीक सेन्तिक थे ।! ये सभी भारत 
के पश्चिमोत्तर प्रान्त के निवासी थे। मलयकेतु सेना की त्यूहूरचना कर जब 
पाटलिपुत्र पर आक्रमण करने की योजना बनाता है, तब उसकी सेना में खश, 
मगध, गान्धार, यवन, शक, चीन अथवा चेदि, हुण और कुलूत आबि देशों के 
सैनिकों का उल्लेख है।* इनमें से भी अधिकांश सैनिक उत्त र-पश्चिम भारत के 
रहने वाले थे। मगध देश, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, उससे विशाखदत्त 
भली-भाँति परिचित थे। पाटलिपुत्र गंगा के किनारे स्थित था। चन्द्रगुप्त का 
राजप्रसाद, जिसका नाम सुगांगप्रसाद था, गंगा के तट पर बना हुआ था। 
शोण तदी को पार कर पाटलिपुत्र में जाया जा सकता था। इसी प्रकार के अन्य 
कथन हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि विशाखदत्त को इस भू-प्रदेश की विशेष 
जानकारी थी। मगध देश के प्रति हमारे ताटककार का अत्यधिक लगाव था, 
जैसा कि गौडाडगनाओं के वर्णन से प्रतीत होता है कि भौंरों के समान काले 
उनके कुड्चित केश थे और वे अपने कपोलों पर लोघ्रपुष्पों का पराग लगाती 
थी ।९ गौड देश उस समय का मगध देश ही है। इस प्रकार का वर्णन वही 


3. मुद्रा, /20 

4. उही, ]22 
(इस पुस्तक में मुद्राराक्षस की पृष्ठसंख्या तेलंग के संस्करण के आधार पर दी गये) है) 

5. बही 5/] 

6. मुद्रा, 5/23 


विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व ] 


व्यक्ति कर सकता है, जिसने किसी प्रदेश के रहनेवालों के आचार-व्यवहार आदि 
का बड़ा सूक्ष्म अवलोकन किया हो। इस आधार पर यदि विशाखदत्त को 
मगधदेशाभिजन मानता जाय तो असंगत न होगा। 

शारदार|ञ्जन राय ने अपने मुद्राराक्षत के संस्करण में 'न शाले: स्तम्ब- 
करिता वस्तुर्गुणमपेक्षते! (/3) तथा 'मुसलमिदर्मियं च पातकाले मुहुर॒नुयाति 
कलेन हुंकृतेन' (/4)--इन वर्णनों के आधार पर उन्हें बंगाली सिद्ध करने का 
प्रयस्त किया है, यद्यपि धान के लहलहे गुच्छे उत्तर प्रदेश में भी दिखायी पड़ते हैं । 
'पौरैरड्गुलिप्षिन॑वेन्द्रवदहं॑निर्दिश्यमान: शनै:” (6/!0)--इस इलोक में जिस 
लोक-प्रथा का उल्लेख है, वह भी यहाँ प्रचलित है। प्रायः स्त्रियाँ अपने शिशुओं 
को गोद में लेकर चन्द्रमा की ओर अऑँगुली उठाकर उन्हें देखने के लिए प्रेरित 
करती हैं। इसके अतिरिक्त काशपुष्प (2/7; 3/20) राजहंस (3/20) तथा 
सारस (3/7) आवबि का जैसा वर्णत है, उससे भी यही सिद्ध होता है कि 
विशाखदत्त उत्तर प्रदेश और विहार आदि प्रदेशों से भली-भाँति परिचित थे; 
क्योंकि यहीं शरद्‌ ऋतु में काशपुष्पों की छवि देखने को मिलती है और यही 
नदियों किनारे राजहुंस और सारस-कुल विचरण करते हुए दिखाई पढ़ते हैं। 
विशाखदत्त ने तृतीय अंक के 9वें और 24वें श्लोक में दक्षिण समुद्र का भी वर्णन 
किया है, जिसमें विविध वर्णो की मणियाँ चमकती रहती हैं और जिसका जल 
चज्चल महामत्स्पों से आन्दोलित होता रहता हैं, परन्तु दक्षिण देश के उस समय 
के सगरों एवं नदियों आदि के वर्णत के अभाव से उन्हें दक्षिण देश का निबासी 
नहीं माना जा सकता । वह निस्सन्देह उत्तर भारत के निवासी थे, लेकिन किस 
भूभाग-विशेष को अलंकृत करते थे, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। 
वस्तुत: विशाबदत्त काव्य-गगन के देदीप्यम्नान चद्र हैं, जिन्हें सभी लोग चाहते हैं 
और अपने-अपने गृहों को आलोकित करनेवाला बताते हैं। वह्‌ कालिदास के समान 
सभी के प्रिय हैं और सभी के अपने हैं । 


वर्ण और धर्म 


विशाखदत्त ने अपने जन्म-स्थान आदि की भाँति वर्ण के विषय में भी कुछ नहीं 
कहा; लेकिन नाटक में ब्राह्मणों के प्रति जो आदर भाव व्यक्त हुआ है, उससे स्पष्ड 
होता है कि वह ब्राह्मण थे । नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार और नटी के वार्तालाप 
में ब्राह्मणों के लिए अनेकश: भगवत्‌' शब्द का प्रयोग हुआ है । उदाहूरणत:--- 
, कथय किमद्य भवत्या तत्र॒भवतां ब्राह्मणानामुपनिमत्त्रणेन 
कुटुम्बकमनुगृहीतम्‌ ? 
2. आये, आमन्त्रिता मया भगवन्तो ब्राह्मणा: । 
3. तत्प्रवर््यतां भगवतो ब्राह्मणानुहिश्य पाक: । 


(2 विशाखदत्त 


इस शाब्द के प्रयोग से ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की गयी है । इससे उनका 
ब्राह्मण होना घ्वनित होता है। परन्तु रणजीत सीताराम पण्डित ने 'द सिग्नेठ 
रिंग! (]॥6 887० 7) में उन्हें क्षत्रिय बताया है और यह तके दिया है 
कि विशाख का अर्थ होता है शंकर-पुत्र स्वामी कारतिकेय। इनकी कृपा से ही 
नाटककार का जन्म हुआ होगा, अत: उनका नाम विशाखदत्त रखा गया। 
विशाख का सम्बन्ध युद्ध से था; क्योंकि वह देवताओं के सेनापति थे! युद्ध 
करना मुख्यतः क्षत्रियों का धर्म है। इस नाटक में राजदरबार का जैसा वर्णन है 
और राजा के सन्निध्य में रहनेवालों का राजा के प्रति कैसा बर्ताव होना चाहिए, 
इन सब बातों से यह स्पष्ट होता है कि विशाखदत्त दरबारी जीवन और वहाँ के 
लोगों के आचार-व्यवहार से भलीभाँति परिचित थे। इससे उनका क्षत्रिय होना 
सिद्ध होता है। लेकिन वस्तुत: विचार करने से उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर 
उन्हें क्षत्रिय महीं कहा जा सकता । परशुराम जीवनपय॑न्‍त युद्ध करते रहे, 
लेकिन कर्मणा वह क्षत्रिय नहोकर ब्राह्मण ही थे। बाणभट्ट ने सम्राट हष के 
दरबार का जैसा वैभवपूर्ण वर्णन किया है, पह अप्रतिम है; लेकिन उस वर्णन 
से उनका क्षत्रियल्व नहीं सिद्ध होता है। वह भी ब्राह्मण थे। इस नाटक के दो 
प्रमुख पात्र चाणक्य और राक्षस ब्राह्मण हैं। एक चन्द्रगुप्त का महामन्त्री है तो 
दूसरा नन्दों का। राक्षस युद्ध-कला में पारंगत होते हुए भी ब्राह्मण ही है। युद्धकाल 
में उसके विलक्षण शौर्य का प्रतीक मुद्राराक्षस का यह श्लोक है-- 


यत्रैषा मेघनीला चरति गजधटा राक्षसस्तत्र याया- 

देतत्पारिप्लवाम्भ: प्लुति तुरगबलं वार्यतां राक्षसेन । 

पत्तीर्ना राक्षसो5न्त॑ नयतु बलमिति प्रेषयन्मह्यमाज्ञा- 

मज्ञासी: प्रीतियोगात्‌ स्थितमिव नगरे राक्षसानां सहख्रम्‌ू ॥ (2/44) 


इससे उसका वीरत्व व्यज्जित होता है; वर्णत्व नहीं । इस सम्बन्ध में एक 
बात और ध्यान देने की है कि जिस प्रकार भवभूति और भरट्टनारायण, जो 
ब्राह्मण थे और उन्होंने अपने नाटकों में विदूषक को नहीं रखा, उसी प्रकार विशाख- 
दत्त ने भी अपने नाटक में विदृषक को कोई स्थान नहीं दिया। विदृषक अपनी 
विक्ृत आक्ृति, बाणी ओर वेष आदि से विरह-व्याकुल राजा का मनोविनोद 
करता रहता है। वैसे यह ब्राह्मण होता है लेकिन इससे ब्राह्मणों की दीन-हीन दशा 
की अभिव्यक्ति होती है। इसलिए उपर्युक्त नाटककारों के नाठकों में विदूषक का 
अभाव है | अतः भवभूति और भट्टनारायण की भाँति विशज्ञाखदत्त का ब्राह्मणत्व ही 
सिद्ध होता है । 

विशाखदत्त किस विशिष्ट मतवाद के माननेवाले थे, यह भी निश्चित 


विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व ]3 


रूप से ज्ञात नहीं होता। प्रारम्भ में दोनों नान्दी-पद्मों में भगवान शंकर की 
स्तुति होने से कुछ लोगों ने उन्हें शैव सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। प्रथम 
तानदी-पद्म में शिव का पौराणिक स्वरूप चित्रित किया गया है, जिनके वामांग 
में पार्वती विराजमान हैं, ललाट में चन्द्रकला है और शिर पर जटाजूटों में 
निलीन हैं गंगा। दूसरे में, शिव को ताण्डव नृत्य करते हुए दिखाया गया है, 
जिनके तृतीय नेत्र में अग्ति-ज्वाला दहकती रहती है, जिससे वह सृष्टि का 
संहार करते है।इस श्लोक के मूल में शिवमहिम्त स्तोत्र का यह श्लोक प्रतीत 
होता है--- 


मही पदाघाताद्‌ व्रजति सहसा संशयपद॑ 
पद॑ विष्णो भ्रम्यिद्भुजपरिघरुश्णग्रहगणम्‌ । 
मुहुयांदौस्थ्यं | यात्यनिभृतजटाताडिततटा 
जगद्रक्षाय त्वं नटसि नतु वामेव विभुता ॥ ॥ ।। 


पुनः तृतीय अंक में वैतालिक के मुख से प्रस्तुत शरदु-वर्णन से अप्रस्तुत 
शिव के शरीर का जैसा वर्णन कराया गया है (शलोक 20), उससे भी शिव के 
पौराणिक स्वरूप की अभिव्यक्ति होती है। उनके शरीर पर चिता की भस्म 
लगी हुई है; मस्तक में चन्द्रमा विराजमान है; जिसकी किरणों से गजासुर का चर्म 
जो वह धारण किये हैं, आर्द होता रहता है; गले में नर-कपालों की माला है और 
वह अट्टहास करते हैं । ः 

इस प्रकार के शिव-वर्णन से विशाखदत्त को शैव नहीं कहा जा सकता; 
क्योंकि एक ओर जहाँ वैतालिक ऐशीतनु का वर्णन करता है, वहाँ दूसरी ओर 
(श्लोक 2) बह शेष-शय्या पर जागे हुए भगवान्‌ विष्णु का भी वर्णन करता है। 
पौराणिक धारणा है कि आषाढ़ में हरिशयती एकादशी को भगवान्‌ शेषशस्या 
पर शयन करते हैं और कार्तिक में देवोत्थानी एकादशी को जागते हैं (शेते 
विष्णु: सदाषाढे कातिके प्रतिबोध्यते)। इससे उतकी विष्णु-भक्ति प्रकट होती 
है। इसके अतिरिक्त भरत वाक्य में भी उन्होंने वराहवपुर्धारी भगवान विष्णु की 


स्तुति की है, जिन्होंने प्रलयकाल में डूबी पृथ्वी को अपनी दन्तकोदि पर धारण 
किया-- 


वाराहीमात्मयोनेस्तनुमवनविधावा स्थितस्यथानुरूपा 
यस्य प्राग्दल्तकोर्टि प्रलयपरिगता शिक्षिये भूतधात्री । (7/8) 
इन सब वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि विशाखदत्त वैदिक धर्म अथवा 


]4 विशाखदत्त 


ब्राह्मणधर्म के अनुयायी थे, जिसमें क्या शिव, क्या विष्णु सभी देवताओं के 
प्रति भक्ति-भाव अपित किये जाते हैं। वाठककार ने सूर्य के लिए भगवान्‌ शब्द 
का प्रयोग कर अपनी श्रद्धा को प्रकट किया है।” उन्होंने जैनियों और बौद्धों के 
प्रति भी आदर भाव व्यक्त किया है ।॥* इससे उनकी धामिक सहिष्णुता का 
परिचय मिलता है। यह ब्राह्मण धर्म की ही विशेषता है, जिसमें सभी धर्मों के प्रति 
सम्मान प्रदर्शित किया जाता है, किसी से द्वेष नहीं किया जाता (सा विहिधाब) 
है।” यद्यपि विशाखदत्त सभी धर्मों के प्रति उदार थे, लेकित वह मुख्य रूप में 
हरिहरात्मिका भक्ति के उपासक थे | कालिदास ने भी इसी प्रकार की भक्ति अप- 
नायी है। 'कुमारसभ्भव' उनकी शिव-भक्ति का परिचायक है तो 'रघुवंश” विष्ण- 
भक्ति का | 

कालिदास की भाँति विशाखदत्त ने भी शिव और विष्णु के प्रति समान रूप 
से अपनी भक्ति-भावना प्रर्दाशित की है। नाटक का प्रारम्भ शिव-स्तुति से होता है 
तो अवसान बराहावतारधा री भगवान्‌ विष्णु की स्तुति से। बीच में शिव और 
विष्णु का एक-सा स्तवन है। इससे यही निष्कषं निकलता है कि विशाखदत्त की 
वही हरिहरात्मिका भक्ति है, जिसका उल्लेख भगवत्पाद शंकर ने गंगास्तुति में 
किया है--- 


भूयादभक्तिरविच्युता हरिहराद्वेतात्मिका शाश्वती । 


कृतियाँ 


विशाखदत्त की एकमात्र पूर्णतः उपलब्ध कृति "मुद्राराक्षस' है, जिससे 
उनका यश सर्वत्र छाया है। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र गुणचन्द्र के 'नादुयदर्पण' 
और भोज के “श्रृंगार प्रकाश' में उद्धृत सन्दर्भों से, जिन्हें प्रो. भ्र्‌व ने अपने मुद्रा- 
राक्षस के संस्करण के अन्त में परिशिष्ट 'द' के रूप में दिया है, ऐसा प्रतीत 
होता है कि विशाखदत्त ने 'देवीचन्द्रगुप्तम” नामक एक और नाटक की रचना 


7, अध्ताशिलाषों भगवान सूर्य: (पृ० 25) 
अये, अस्ताभिलाषी भगवान्‌ भास्कर: | पृ० 2]5 
8. आाहँतातां श्रणमामि ये ते गम्भीरतया बुद्धे : । 
लोकीत्तरलोंके सिद्धि मार्गेग्ेचछन्ति |॥ (मुद्रा० 5/2) 
८ हर 
बुद्धानामपि चेष्टितं सुचरितेः विलष्टं विशुद्धात्मना ॥ (वही, 7/5) 
9. कठोपनिषत्‌ शान्तिपाठ 


विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व ]5 


की थी। मुद्राराक्षत के समान इसका पी विपय राजनैतिक है, यद्यपि वैसी 
उदात्तता इसमें नहीं पायी जाती | संभवतः यह नाटक छह या सात अंकों का 
होगा; क्‍योंकि 'नाट्यदर्पण' में 'देवीचन्द्रगुप्तम' से जो नंष्क्रामिकी श्रुवा ली 
गयी है, उप्तसे यही ज्ञात होता है कि नाटक अभी समाप्ति की ओर नहीं है। 
यह नैष्क्रामिकी ध्रूवा पञधु्चम अंक के अन्त में है। इस नाटक में चन्द्रगुप्त 
विक्रमादित्य द्वितीय के द्वारा शकों की पराजय और सौराष्ट्र की विजय वरणित 
है। गुप्तवंशीय सम्राट्‌ रामगुप्त ने शकों की राजधानी ग्रिरिपुर पर आक्रमण किया, 
लेकिन वह शत्रुओं के चंग्रुल में फेंस गये | शक-सन्नाट ने उन्हें इस शर्ते पर छोड़ना 
चाहा कि वह अपनी सुन्दरी पत्नी श्र वदेवी को शकराज को समपित करें। 
रामगुप्त के छोटे भाई चन्द्रगुप्त इस णर्त से बड़े ही क्रुद्ध हुए और उन्होंने अपने 
बड़े भाई को मुक्त कराने की एक योजना बनायी। वह श्लुवदेवी के बेप में शत्रु 
के स्कन्धावार में गये और शक-नरपति को मार डाला; पुन; आक्रमण करके 
शकराज्य को जीत लिया | “श्ंगारप्रकाश” में इस आएणय का एक उद्धरण 
मिलता है--स्त्रीवेष--तिक्नू तश्चन्द्रगुप्त: शत्रों: स्कन्धावारं गिरिपुरं शकपतिवधा 
यागमत्‌ । इसी प्रसंग का उल्लेख बाण ने अपने 'हर्षचरित' के षष्ठ उच्छवास में 
इस प्रकार किया है--अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामितीवेषगुप्तसइच चर्द्रगुप्त: 
शकपतिमशातयत्‌ । हर्पचरित के टीकाकार शंकर ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार 
किया हैं-- 
शकानामाचार्य: शकाधिपति: । चद्द्रगुप्तभ्रातृजायां ध्र्‌ बदेवी प्रार्थ- 
यमानश्चच्धगुप्तेते ध्ूूवदेवीवेषधारिणा  स्त्रीवेषजनपरिवृतेन रहूसि 
व्यापादित: । 
श्रीधरदास-प्रणीत 'सदुक्तिकर्णामृतम्‌' में विशाखदत्त के नाम से एक श्लोक 
दिया हुआ है, जिसमें विभीषण रावण से राम की वीरता का वर्णन करते हुए 
कहता है--- 


रामोड्सौ भुवनेपु विक्रमगुणर्यातः प्रसिद्धि पर--- 
मस्मदभाग्यविपयेयाद्‌ यदि पर॑ देवो न जानाति तम्‌ । 

बन्दीवेष यशांसि गायति मरुद्‌ यस्यैकबाणाहति । 
श्रेणीभूतविशालतालविव रोदगी णें: स्वर: सप्तनि: )। (/46/5) 


अर्थात्‌ राम अपने पराक्रम-गुणों से सभी भृवनों में प्रसिद्धि को प्राप्त कर चुके 
हैं; लेकिन हमारे दुर्भाग्य से आप उन्हें नहीं जानते । उनके एक बाण के प्रह्मर से 
पंक्तिबद्ध विशाल (सात) ताल वृक्षों के छिद्टों से तिकले हुए सप्तस्वरों से यह मझत्‌ 





0, दृषंचरित, पृ० (99-200) निर्णयस्तागर ग्रेष्त, बस्बई 937 


[6 विशाखदत्त 


उनका यशोगान कर रहा है | 

मम्मट ने इसे काव्यप्रकाश के चतुर्थ उल्लास में पर्दकदेशों की वीररस- 
व्यज्जकता के उदाहरण रूप में उद्धत किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि 
विशाखदत्त ने रामायण-कथा पर आश्रित किसी नाठक की रचना की होगी, 
जिसका यह पद्य है; लेकिन निश्चित रूप से इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा 
सकता । 

पीटसँन के द्वारा सम्पादित 'सुभाषितावली" में दो अनुष्टुप्‌ विशाखदेव के 
नाम से विये हुए हैं। यद्यपि पीटर्सन ने विशाखदेव को विशाखदत्त ही माना है; 
लेकिन प्रो. ध्यू व उन्हें भिन्‍न व्यक्ति मानते हैं। वे अनुष्टुप्‌ इस प्रकार हैं-- 


तत्‌ त्रिविष्टपमाख्यातं तन्‍्वज्भया यद्वलित्रयम्‌ । 
येनानिमिषदृष्टित्वं नृणामप्युपजायते ।॥॥ 

सेन्द्रचापैः भ्रिता मेघैनिपतान्निर्झ रा नगाः । 

वर्णकम्बलसंवीता बभुर्मत्ता द्विपा इव॥ (सुभा० 538,728) 


सपम्रय-निरूपण 


विशाबदत्त के जन्मस्थान की भाँत्ति उनका समय भी अद्यावधि अनिर्णीत 
ही है। विद्वानों ने अन्त:साक्ष्य और बाह्यप्षाक्ष्य के आधार पर उन्हें भिन्‍न-भिन्‍न 
काल का माना है। अन्त:साक्ष्य के रूप में मुद्राराक्षत और उसकी विविध पाण्ड्- 
लिपियाँ हैं, जिनका उल्लेख तेलंग ने अपने मुद्राराक्षत्त के संस्करण की भूमिका में 
किया हैऔर बाह्मसाक्ष्य के रूप में उन ग्रन्थों की गणना होती है, जिनमें 
मुद्राराक्षत के श्लोक उद्धृत हैं अथवा इसके इतिवृत्त का उल्लेख है। इत अन्तरंग 
और बहिरग प्रमाणों के आधार पर विशाखदत्त का समय चौथी शताब्दी ई० से 
लेकर बारहवीं शताब्दी तक माना जाता है | बारहवीं शताब्दी निश्चित रूप से 
अन्तिम सीमा है। 


बाह्यसाक्ष्य 


श्रीधरदास ने जो बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के समय में थे, उनके शासन 
के सताइसवें वर्ष में (शक सं० 27) अर्थात्‌ 205 ई० में 'सदुक्तिकर्णा मृतम्‌! 
की रचना की | उन्होंने विशाखदेव के नाम से दो श्लोकों को उद्धृत किया है, जो 
पीछे दिये गये हैं। यदि पीटर्सस का यह कथन ठीक है कि विशाखदेव विशाखदत्त 
ही हैं, तो वह निश्चित रूप से ।205 ई० के पूर्व के माने जायेंगे | भोज ने, जिनका 
समय ग्यारहवीं शताब्दी ई० है, अपने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में मुद्राराक्षस के दो 
इलोकों को उद्धुत किया है। प्रथम श्लोक इस प्रकार दिया हुआ है--- 


उपरि घन घनपटलं दूरे दयिता किमेतदापतितम्‌ | 
हिमवति दिव्यौषधय: कोपाविष्ट: फणी शिरसि |॥ 


मुद्राराक्षस में यह श्लोक चन्दनदास का स्वगत कथन है ओर मूलतः: प्राकृत में 
है, जिसकी संल्कृत-छाया इस प्रकार है--- 


]8 विशाखदत्त 


उपरि घन घनरटितं दूरे दथिता किमेतदापतितम्‌ । 
हिमवति दिव्यौषधय: शीर्षे सपे: समाविष्ट: ॥॥ (/22) 


दूसरा एलोक मुद्राराक्षस का प्रत्यग्रोन्मेष जिह्या० (3/2]) है, जो 
सरस्वतीकण्ठाभरण में कुछ पाउ-भेद के साथ उद्धत है। वहाँ 'जृम्भितै:” के 
स्थान पर “जुम्भण: और अभिताम्रा' के स्थान पर “अतिताम्रा' है। यद्यपि 
भोज ने वहाँ यह नहीं बताया है कि ये श्लोक मुद्राराक्षस से उद्धत हैं, लेकिन 
इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि ये श्लोक मुद्राराक्षस के ही हैं । अतः 
विशाखदत्त का समय ग्यारहवी शताब्दी ईसा पूर्व ठहरता है। धनव्जय 
(दसवी शताब्दी) के दशरूपक पर उनके छोटे भाई धनिक द्वारा लिखी हुई 
अवलोकचृत्ति में दो स्थलों पर मुद्राराक्षस का उल्लेख है। प्रथम उल्लेख इस 
अकार है--- 


तत्र बृहत्कथामूलं मुद्राराक्षसम्‌ू-- 


चाणक्यनाम्ना तेनाथ शकटालगृहे रह: । 
कृत्यां विधाय सहसा सपुत्रो निहतो नृप: ॥। 
योगानन्दयश:शेषे पूर्वनन्दसुतस्तत: । 
चन्द्रगुप्त: कृतो राजा चाणक्येन महौजसा । 
(दशरूपक /68 पर वृत्ति) 


दूसरा उल्लेख इस प्रकार किया गया है--- 
मन्‍्त्रणक्त्या, यथा मुद्राराक्षसे राक्षससहायावीनां चाणक्येन स्वबुद्धबणा भेद- 
नम्‌ । अ्थेशकक्‍त्या तत्रेव, यथा परवंतकाभरणस्य राक्षसहस्तगमनेन सलयकेतु- 
सहोत्था यिभेदनम्‌ । (दशरूपक 2-55 पर वृत्ति) 
प्रथम उद्धरण की सत्यता पर प्रो. भ्रूव और डॉ. हाल ने सन्देह व्यक्त किया 
है। प्रथम उद्धरण के श्लोक क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामज्जरी के हैं, ग्रुणादूय की 
बृहत्कथा के नहीं; क्‍योंकि वह तो पैशाची प्राकृत में थी, जबकि ये एलोक संस्कृत 
में है। 'बूहत्कथामज्जरी' एक प्रकार से पैशाची बृहत्कथा का संस्कृत रूपान्तर है । 
प्रो. ध्रूव क्षेमेद्ध को धनञझूजय से लगभग डेंढ़ सौ वर्ष बाद का मानते हैं।' ऐसी 
स्थिति में क्षेमेन्द्र के श्लोक धनञ्जय के दशरूपक में कैसे आ सकते हैं ? यदि 


. मुद्दाराक्षस की भूमिका, पृष्ठ 23 की वाद-टिप्पणी । के 
2, दशरूपऊ, [7720फ्रद्बा0 लक! ढारा909#076०७ [7008, 865 में प्रकाशित । 
3, मृद्राराक्षस शी भूमिका, पृष्ठ 23 की पाद-टिप्पणी । 


समय-निरूपण ]9 
दूसरे श्लोक को प्रामाणिक मानें तो विशाखदत्त धनज्जय के पूर्ववर्ती सिद्ध होते 
हैं। अर्थात्‌ उनका दशम्‌ शताब्दी से पूर्व का होना निश्चित होता है। 

दशरूपक के द्वितीय प्रकाश के प्रारम्भ में नायक के गुणों के प्रसंग में स्थिर 
नायक के विषय में अवलोककार धनिक कहते हैं-- 

स्थिर:---वाहुमन: क्रियाभि रचज््चलः ।'''यथा भत हरिशतकै-- 


प्रारभ्यते न खलु विध्नभयेन नीचे: 

प्रारभ्य विध्तविहिता विरमत्ति मध्या: । 

विध्नै: पुनः पुनरपि प्र तिहन्यमाना: 

प्रारब्धमुत्तमगुणा त परित्यजन्ति ॥ (भरत हरि, नीतिशतक श्लोक 27) 


इसके चतुर्थ पाद का पाठान्तर “प्रारब्धमुत्तमगुणास्त्वमिवोहहन्ति” है, जो 
मुद्राराक्षस के प्रसंग के अनुकूल है।यह श्लोक मुद्राराक्षत का ही है, जो 
नीतिशतक में आया है, ऐसी मान्यता प्रो. क्रूव की भी है। भत्‌ हरि के शतकत्रय 
में इसी प्रकार अन्य कवियों के भी श्लोक मिलते हैं । भतृ हरि का समय सप्तम 
शताब्दी माना जाता है। अत: विशाखदत्त उससे पूर्व के सिद्ध होते हैं। माघ के 
'शिशुपाल वध के 6 वें सर्ग के 84 वें श्लोक के अन्तिमपाद 'इत्य॑ं नित्यविभुषणा 
युवतय: संपत्सु चापत्स्वपि” की समानता मुद्रा राक्षस के प्रथम अंक के चौदहवें श्लोक 
के चतुर्थ पाद 'ते भृत्या नृपते: कलत्रमितरे संपत्सु चापत्सु च' से मिलती है। इससे 
यह प्रतीत होता है कि इन दोनों कवियों में से किसी एक का दूसरे पर प्रभाव है। 
इसी प्रकार मुद्राराक्षत के इस श्लोक--- 


जानन्ति तन्त्रयु क्तिं यथास्थितं मण्डलमभिलिखन्ति । 
ये मन्त्ररक्षणपरास्ते सर्पनराधिपावुंपचरन्ति ॥ (2/) 


त्तथा शिशुपाल वध के इस एइलोक-- 


तल्त्रवापविदा योगैर्मण्डलान्यधितिष्ठता ! 
सुनिग्रहा नरेन्द्रेण फणीन्द्रा इब शत्रवः ॥ (2/88) 


में समानता परिलक्षित होती है। यदि यहाँ हम यह मानते हैं कि मुद्राराक्षस का 
शिशुपालवध्च पर प्रभाव है तो विशाखदत्त का माघ से पूर्वकालिक होना सिद्ध होता 
है। माघ का समय सप्तम शताब्दी का उत्तराद्ध (अनुमानत:650-700) माना 


20 विशाखदत्त 


जाता है। अत: विशाखदत्त का समय इससे पूर्व का माना जा सकता है। इसी: 
प्रकार का साम्य 'किरातार्जुनीयम्‌' के इस श्लोक--- 


उपजापसहान्‌ विलदड्घयन स विधाता नृपतीन्‌ मदोद्धतत: । 
सहते न जनोष्प्यध: क्रिया किमु लोकाधिकधाम राजकम्‌ ॥((2/47) 


और मुद्राराक्षस के इस श्लोक--- 


सद्य: क्रीडारसच्छेदं प्राकृतो5पि तन मर्षयेत्‌ । 
किमु लोकाधिक धाम विभ्राण: पृथिवीपति:॥ (4/0) 


में पाया जाता है। यद्यपि तेलंग ने, 'किमु' के स्थान पर 'किनु” पाठ माता है, 
लेकिन माघ के श्लोक के आधार पर “किमु' पाठ ही ठीक प्रतीत होता है। 
शारदार|0्जन राय ने मुद्राराक्षस के संस्करण मेंकिमु लोकाधिक॑ धाम०' 
इसी पाठ को अपनाया है। भारवि का समय कीथ ने छठी शताब्दी का उत्तराद्ध 
(550 ई०) और क्ृष्णामाचार्य ने* छठी शताब्दी का प्रारम्भ माना है, अतः 
इलोक में यदि विशाखदत्त का प्रभाव माघ पर है तो वह माघ से पूर्व॑वर्ती सिद्ध 
होते हैं । 

इन ग्रन्धों की अपेक्षा मुद्राराक्षत और मृच्छकटिक में कुछ अधिक समानता 
दिखायी पड़ती है। मुद्राराक्षत्त की प्रस्तावता और मृच्छकटिक के आमुख में सूत्र- 
धार और नटी की बातचीत में पर्याप्त समानता मिलती है। इसी प्रकार मुद्रा- 
राक्षस के सप्तम्‌ अंक में वध्यस्थान की ओर चण्डालों के द्वारा ले जाये जाते हुए 
चन्दनदास और उसके पुत्र के साथ चाण्डालों की बातचीत और मृच्छकटिक के 
दनवें अंक में वध्यस्थान की ओर ले जाये जाते हुए चारुदत्त और उसके पुत्र के साथ 
चाण्डालों की बातचीत में पर्याप्त समानता: है । शूद्रक का समय का लिदास के पूर्व का 
माना जाता है। कीयथ और क्ृष्णमाचार्य दोनों उन्हें कालिदास का पूर्ववर्ती मानते 
हैं। इससे भी विशाखदत्त की प्राचीनता ही सिद्ध होती है; क्‍योंकि उन्होंने अपने 
पू्व॑वर्ती नाटककार का उपर्युक्त स्थलों पर अनतुकरण किया है। बाण ने अपने ह्ष- 
चरित में कालिदास की अत्यधिक प्रशंसा की है, लेकिन शूद्रक का नाम नहीं लिया । 
कहीं ऐसा तो नहीं कि श्‌द्रक की जो ख्याति विशाखदत्त के समय में थी, वह बाण 
के समय में नही रही। अतः विशाखदत्त बाण से बहुत प्राचीन और शूद्रक के 


4. ए हिस्द्री ऑव संस्कृत लिटरेचर (हिन्दी अनुगाद) मंगल देव, पृ० 34 
5. हिस्ट्री आँव क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ० ]94 


समय-निरूपण 2] 


बाद के सिद्ध होते हैं, क्योंकि शूद्रक की कृति का उनकी नाट्यक्ृति पर सर्वाधिक 
प्रभाव है । 


अन्तः:साक्ष्य 


विशाबदत्त का समय निश्चित करने में मुद्राराक्षम के भरत-वाक्य-इलोक 
(7/8) की यह अन्तिम पंक्ति प्रमाणभूत है-- 


स श्रोमद्वन्धुभृत्य श्चि रमवतुमहीं पारथथिवश्चन्द्रगुप्त: । 


भरतवाक्य में प्रायः समप्तामयिक राजा की प्रशस्ति वणित होती है। इससे 
यह सिद्ध होता है कि विशाखदत्त ने भरतवाक्य में अपने आश्रयदाता राजा का 
उल्लेख किया होगा । लेकिन यह राजा कौन होगा, यह विचारणीय विषय है; 
क्योंकि मुद्रा राक्षस की विभिन्‍न पाण्डुलिपियों में 'पारथिवश्चन्द्रगुप्त: के स्थान पर 
पार्धिवों रच्तिवर्मा' और 'पाथिवोद्दन्ति वर्मा' ये विभिन्‍न पाठ आते हैं। सर्वप्रथम 
हम 'रन्तिवर्मा' पाठ को लेते हैं, जिसे विद्वानों ने मान्यता नहीं दी । क्योंकि इस 
नाम का कोई ऐसा राजा ऐतिहासिक युग में नहीं हुआ, जिसकी वीरगाथा का 
वर्णन विशाखदत्त ने अपने नाटक में किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि यह 
अबन्तिवर्मा का ही विकृत रूप है, जो कुछ पाण्शुलिपियों में देखा जाता 
है । 

श्रीरंगस्वामी सरस्वती ने मालाबार में प्राप्त कतिपय पाण्डुलिपियों के 
आधार पर 'दन्तिवर्मा' पाठ को उपयुक्त मानते हुए उन्हें पललवराज दन्तिवर्मा 
सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जिनका समय 720 ई० के लगभग है।० लेकिन प्रो. 
ध्रूव ने इस कथा को इस आधार पर असंगत बताया है कि पल्‍लववंशी दल्तिवर्मा 
शैव थे, जबकि भरतवाक्य में वराहु-रूपधारी भगवान्‌ विष्णु की स्तुति है, दूसरे 
उन्होंने म्लेच्छोन्मूलन का कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया, जिसकी ओर 
संकेत भरतवाक्य में किया हुआ है। 

काशीनाथ श्यम्बक तेलंग और प्रो. के. एच. ध्यूव ने विशाखदत्त को 
कन्नौज के महाराज अवन्‍न्तिवर्मा का समकालिक माना है, जिनका समय छठी 
शताब्दी का उत्तराद् 579-600 ई० है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि 
प्रो. ध्रव ने तो अपने संस्करण में 'पार्थिवों्वस्तिवर्मा' पाठ दिया है, लेकिन तेलंग 
ने 'पाथिवष्चन्द्रगुप्त:, पाठ ही दिया है, ऐसा संभवतः उन्होंने ढुंढिराज की टीका 
के आधार पर दिया होगा, जिसे सर्वप्रथम उन्होंने मुद्राराक्षस के साथ प्रकाशित 


6. धुव--मुद्राराक्षस की भूमिका, पृ० 9 


22 विशाखदक्त 


किया । ढुंढिराज ने चत्धगुप्तः पाठ को ठीक मानकर तदनुसार भरतवाक्य- 
इलोक की व्याख्या की है। अवन्तिवर्मा नाम के दो राजा ऐतिहासिक युग में 
हुए हैं। एक हैं कश्मीर के, जिनका उल्लेख कल्हण ने “राजतरडिगणी' में 
किया है और जितका शासन-काल 855-883 के बीच माना जाता है । 
प्रो. याकोबी ने कश्मीर के महाराज अवन्तिवर्मा को विशाबदत्त का 
आश्रयदाता माना है। इस कथन की पुष्टि में उन्होंने यह तक दिया है कि मुद्रा- 
राक्षस में जिम्त चन्द्रगुष्त का उल्लेख है, वह 2 दिसम्बर 860 ई० को 
हुआ था और तभी राजा के मन्‍्त्री शूर ने इस नाटक का अभिनय कराया था !? 
लेकिन यहाँ यह प्रश्त उठता है कि यदि विशाखदत्त कश्मीर के अवन्तिवर्मा के 
आश्वित कवि होते, तो वह कश्मीर के राजा पुष्कराक्ष (काश्मीर: पुष्कराक्ष:- 
मुद्रा ।/20) को स्लेच्छ व कहते--उपलब्धवानस्मि प्रणिधिभ्यों यथा तस्य म्लेच्छ- 
राजबलस्य मध्यात्रधानतमा: पञचराजान: परया सुहृत्तया राक्षसमनुवर्तन्ते । 
इसके अतिरिक्त उनके साथ भरतवाक्य के इस कथन की भी संग्ति नहीं बैठती 
कि स्लेच्छों के भार से पीड़ित पृथ्वी ने इन्हीं राजा की भुजाओं का आश्रय 
लिया--म्लेच्छी रुद्विज्यमाना भुजयुगमधुना संश्रिता राजमूर्ते:- 7/8) । अत: 
विशाखदत्त कश्मीर-नरेश अवन्तिवर्मा के समकालिक अर्थात्‌ नवम्‌ शताब्दी के 
नहीं हो सकते। 

तेलंग और श्र्‌व ने कन्नौज के अवन्तिवर्मा को विशाखदत्त का समसामयिक 
माना है, जितका उल्लेख भरतवाक्य में है। इनके अनुसार भरतवाक्य में जिन 
स्लेच्छों की चर्चा है, वे हुण हैं, जिन्हें इन्हीं अवन्तिवर्मा और स्थाणीश्वर, थानेसर 
के महाराज प्रभाकरवद्ध॑न ने पूर्णतः: पराजित किया था। प्रो. धूव ने मुद्राराक्षस 
के अपने संस्करण की भूमिका में हण-साम्राज्य के उदय और अस्त का विस्तृत 
वर्णेन किया है। उतके अनुसार हृण-साम्नाज्य, जिसकी स्थापना तोरमाण और 
मिहिरकुल ने की थीं, दशपुर (वर्तमान मन्दसोर) के संग्राम में 528 ई० में विनष्ट 
होकर छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों में विभकत हो गया। इनमें पंजाब के शाकल 
(वर्तमान सियालकोट) और पश्चिमी राजपूताना तथा पूर्वी गुजरात के गुर्जर राज्य 
मुख्य थे। ये थानेसर और कन्नौज के राज्यों के लिए संकट और अशान्ति के कारण 
थे। कन्नौज के मौखर या मौखरिवंशीय राजा ईशानवर्मा और शर्वंवर्मा ने हुणों को 
543 और 552 ई० के अनेक युद्धों में पराजित किया। इन युद्धों में थानेसर के 
राजाओं ने अपने पड़ोसी मौखरी-शासकों की सहायता की। आगे चलकर उनकी 
यह राजनैतिक मैत्री वेवाहिक मैँत्री में परिणत हो गई। थानेसर के महाराज 





7, द संस्कृत ड्रामा, ए. बी. कीथ, (अनुवादक डा, उदयभान्‌ सिह) पृ० 22 
8. मुद्राराक्षत, पू० 84 


समय-निरूपण 23 


आदित्यवर्द्धन ने अपनी भग्रिनी का विवाह कन्नौज के राजकुमार सुस्थितवर्मा के 
साथ कर दिया । 

आक्सस नदी पर बच्चे हण-सा म्राज्य को जब तुर्कों ने फारस के शासक खुशरू 
नौशिखाँ की सहायता से 565 ई० लगभग नष्ट-भ्रष्ट कर दिया, तो वे बैक्ट्रिया 
से टिड्‌डी दल की भाँति भारत के उत्तर-पश्चिम में छा गये और उनसे मिलकर 
शाकल के हण थानेसर के शासकों के लिए आतंककारी पिद्ध हुए। थानेसर के 
महाराज प्रभाकरवर्दधन ने जो आदित्यवद्धंन के पुत्र थे, कन्तौज के शासक 
अवन्तिवर्मा की सहायता से हूणों को उसी प्रकार मार भगाया जैसे सिह हरिणों को 
भगाता है। यह अवन्‍न्तिवर्मा प्रभाकरवरद्धन के जामाता ग्रहवर्मा (हषवरद्धत के 
बहनोई) के पिता थे | हुणों को पराजित कर प्रभाकरवद्धन 'हुण हरिण केसरी” 
कहलाये ।* 

अवन्तिवर्मा और प्रभाकरवर्धन की हूणों पर विजय संभवत: 582 ई० में 
हुई होगी। इसी विजय के उपलक्ष्य में विशाखदत्त ने इस नाटक की रचता की 
होगी और अवस्तिवर्मा ने प्रसन्‍त होकर इनके पिता भास्करदत्त को सामनन्‍्त से 
“महाराज” पद देकर सम्मानित किया होगा । अवन्तिवर्मा का समय छठी 
शताब्दी का उत्तराद्धे है। अत: विशाखदत्त का भी समय यही निश्चित होता 
है। 

एक अन्य दृष्टि से विशाखदत्त का समय यही प्रतीत होता है; क्योंकि इस 
समय बौद्ध धर्म का पूर्णत: हास नहीं हुआ था, अपितु लोगों का उसके प्रति 
आदरक्षाव था। सम्राद हर्ष के समय में ऐसा ही था। यद्यपि उनका झुकाव 
संभवत: बौद्धधर्म की ओर अधिक था, लेकिन वह शिव और सूर्य की उपासना 
करते थे। विशाखदत्त ने भी शिव और विष्णु के प्रति अपनी भक्ति दिखाई है और 
सूर्य को भगवान्‌ विशेषण से युक्त कर अपना आदरभाव व्यक्त किया है। बौद्धों के 
प्रति भी उन्होंने 'बुद्धानामपि चेष्टितं सुचरिते: क्लिष्टं विशुद्धात्मता' (मुद्रा 7/5 ) 
कहकर अपना सम्मान प्रकट किया है।इस प्रकार विशाखदत्त के समय का 
धामिक वातावरण वरद्धेनवंशीय राजाओं के समय के धामिक वातावरण के साम्य 
रखता है। अत: विशाखदत्त का समय जैसा के ऊपर कहा गया है, छठी शताब्दी का 
उत्तराद्ध सिद्ध होता है। 

मुद्राराक्षस की कुछ पाण्डुलिपियों में 'पाथिवश्चन्द्रगुप्त:' पाठ मिलता है, जिसे 
तेलंग, शारदारञ्जनराय और काले आदि ने अपनाया है। प्रश्न उठता है कि यदि 
भरतवाक्य में वर्णित चन्द्रगुप्त विशाखदत्त के समसामयिक थे तो यह कौन 
चन्द्रगुप्त थे--मौर्य॑वंशीय चन्द्रगुप्त अथवा गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य 
द्वितीय ? चन्द्रगुप्त मौर्य तो नाटक का एक मुख्य पात्र है और समस्त घटना चक्र 
उसी पर केन्द्रित है। चन्द्रगुप्त मौयें के समय में विशाखदत्त ने इस नाटक को लिखा 


24 विशाखदत्त 


होगा, ऐसी संभावना बहुत कम लगती है। हाँ, गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त की संभावना 
कुछ बढ़ जाती है; क्‍योंकि भुप्तवंशीय शासक विष्णु के उपासक थे जौर विशाखदत्त 
का भी अनेक श्लोकों द्वारा विष्णोपासक होना सिद्ध होता है---कि शेषस्त भरव्यथा 
न वपुषि क्ष्मां न क्षिपत्येष यत्‌' (2/8) 
उक्त श्लोक में यह बताया गया है कि शेषनाग के फणों पर प्रृथ्त्री टिकी हुई 
है। प्रत्यग्रोन्मेष-जिह्या' 3/2[ इस श्लोक में शेषशायी भगवान्‌ विष्णु की स्तुति 
है और भरतवाक्य 7 8 में वराहावतारधारी विष्णु का स्तवन हैं। इन सब प्रसंगों 
से विशाखदत्त की विष्णुभक्ति अथवा वेष्णव धर्म के प्रति उनका अनुराग व्यक्त 
होता है। 'आशेैलेन्द्रात्‌ 3/ 9'---इस श्लोक में जिस भारत की कल्पना की गयी है, 
वह चतुर्थ और पछचम शत्ताब्दी की ऐतिहासिक परिस्थिति से मेल खाती है | इसके 
अतिरिक्त विशाखदत्त के नाम से अभिहित दिवीचन्द्रगुप्तम्‌' नाटक के जो अंश 
मिलते हैं, उसका नायक यही ऋचन्द्रगुप्त है, इन्हीं का उदात्त चरित्र-चित्रण इस 
नाटक में किया गया है। प्रसिद्ध इतिहासविद्‌ काशीप्रसाद जायसवाल, रणजीत 
सीताराम पण्डित, स्टेनकोनों (8८7707०क) और क्ृष्णमाचायें आदि विद्वान्‌ 
इस नाटक को चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय की रचना मानते हैं। भारतवाक्य में 
उल्लिखित म्लेच्छ हृण हो सकते हैं, जिन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भगाकर पृथ्वी का 
उद्धार किया | हुण गुप्तवंश को अन्तिम पीढ़ी के शासकों से संघर्षशील थे, यह तथ्य 
इतिहास-प्रसिद्ध है। रणजीत सीताराम पण्डित ने कहा है कि गुप्तकाल भारत का 
स्वर्णयुग कहा जाता है, जिसमें साहित्य, कला, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में चरम 
उन्नति हुई । अत: विशाखदत्त इसी युग की देन हैं । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय, 
जिनका समम 375-43 ई० है, उन्हीं के समय में यह नाटक लिखा गया होगा 
और उन्हीं के दरबार में इसका अभिनय भी हुआ होगा । अतः: मोटे तौर पर 
विशाखदत्त का समय चतुर्थ शताब्दी ई० प्रतीत होता है । 


विद्याखदत्त की बहुज्ञता 


किसी महाकवि की उत्कृष्ट रचना में प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों कारण- 
भूत रहती हैं। प्रतिभा तो कवित्व का बीजरूप संस्कारविशेष है, जो काव्य- 
रचना के लिए परमावश्यक है और व्युत्पत्ति लोक, शास्त्र और अन्य कवियों के 
काव्यों के पर्यालोचन से आती है। अच्छी काव्यक्ृति अथवा नाट्यकृति के लिए 
दोनों अपेक्षित हैं । मुद्राराक्षत का अध्ययन करने से पता चलता हैं कि महाकवि 
विशाखदत्त प्रतिभा और व्यृत्पत्ति दोनों से सम्पन्न थे। वह प्रतिभावान्‌ तो 
थे ही; साथ ही उन्हे लोकानुभव भी था और अनेक शास्त्रों में वह पारंगत 
थे । अपने पूर्ववर्ती कवियों की कृतियों का भी उन्होंने सम्यक्‌ू अध्ययन 
किया था। उनका अगाध शास्त्र-बैदुष्य मुद्राराक्षस में पदे-पदें परिलक्षित होता 
है। वह नाट्यशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, ज्योतिश्शास्त्र, छन्‍्दःशास्त्र, न्‍्यायवैशेषिक 
शास्त्र, आयुर्वेद आदि अनेक शास्त्रों में निष्णात थे। इसके अतिरिक्त पुराण, 
इतिहास, गुणादूय की बृहत्कथा, शूद्रक एवं कालिदास की नाद्यकृतियों का भी 
उन्होंने भली-भाँति अनुशीलन किया था। नृत्यगीतादि ललितकलाओं में वह 
पारंगत थे | युद्धकल्ा के भी वह मर्मज्ञ थे। शत्रु के निकट पहुँचकर किस प्रकार 
व्यूह-व्यवस्था कर उसके ऊपर आक्रमण करना चाहिए, इस बात का भी उन्हें ज्ञान 
था। कि बहुना, उनके समान प्रतिभा-व्युत्यत्ति-सम्पन्न नाटककार शायद ही 
संस्क्ृत-जगत्‌ में देखने को मिलेगा । 


नाट्यशास्त्र 


नाटक के प्रारम्भ से ही विशाखदत्त का नाट्यशास्त्रीय ज्ञान प्रकट होने लगता 
है। द्वितीय तान्दी-पद्म में 'त्रिपुरविजयिन: पातु वो दुःखनृत्तम', यहाँ नृत्तम के 
प्रयोग से उनके नाट्यशास्त्र सम्बन्धी सूक्ष्म ज्ञान का परिचय होता है। धनडञ्जय 
के अनुसार नृत्य भावाश्रित होता है और नृत्त ताल और लय के ऊपर आश्ित 
“अन्यद्भावाश्यं नृत्य नृत्तं ताललयाश्रितम्‌' (दशरूपक ]/9) | यह भी मधुर और 


26 विशाखदत्त 


उद्धत भेद से लास्य और ताण्डव दो प्रकार का होता है। भगवान शंकर ताल-लय 
ऊपर नाचते हैं। अतः उनका नतेंन नृत्त कोटि का है और वह उद्धत होने से ताण्डव 
है। मुद्राराक्षम की कई प्रतियों में 'नृत्तम' के स्थान पर 'नृत्यम्‌' पाठ भी मिलता 
है, लेकिन हमारे विचार से वह ग्राह्म नहीं है। काशिताथ अ्यम्बक तेलंग, प्रो. 
के, एच. ध्रूव और मोरेश्वर रामचन्द्र काले ने मुद्राराक्षस के अपने संस्करणों 
में 'नृत्तम' को ही समीचीन मान कर अपनाया है। भास के नाटकों की छोड़कर 
अन्य नाटकों की भाँति इसका भी प्रारम्भ नान्‍दी से होता है; प्रारम्भ में प्रस्तावना 
है; नाटक का अंकों में विभाजन है; पाँचवें और छठे अंकों के प्रारम्भ में प्रवेशक 
के द्वारा भूत और भविष्यत्‌ कथांशों की सूचना दी गयी है और अन्त में भरतवाक्थ 
द्वारा नाटक की समाप्ति की गयी है। इसके अतिरिक्‍्त' नाटक के मध्य में भी 
स्थान-स्थान पर नाटककार के शास्त्रीय ज्ञान परिचय होता है। नाटक में नाटकीय 
इतिवृत्त का विस्तार पाँचों सन्धियों द्वारा किस प्रकार होता है, इसे इस श्लोक द्वारा 
सूचित किया गया है--- 


कार्योपक्षेपमादाौं तनुमपि रचयेंस्तस्य विस्तारमिच्छन्‌ 
बीजानां गर्भितानां फलमतिगहन गूढमुदभेदयंश्च । 
कुव॑न्‌ बुद्धणा विमर्श प्रसृतमपि पुनः संहरन्‌ कार्यंजात॑ 
कर्त्ता वा नाटकानामिममनुभवति क्लेशभस्मद्विघो वा॥ (मुद्रा 4/ 3) 


नाटक के चतुर्थ अंक में, जिसका यह श्लोक है, विमर्श सन्धि है। नाटक- 
कार यहाँ तक फैले हुए इत्िवृत्त का आगे चलकर निवंहण सन्धि में उपसंहार 
करता है। विशाखदत्त ने विमर्श सन्धि तक इतिवृत्त का अत्यधिक विस्तार 
किया है और उसका फलप्राप्ति के लिए कैसे उपसंहार किया जाएं, यह समस्या 
है । यहाँ पहुँचकर विशाखदत्त-जैसा कुशल नाटककार स्वयं क्लेश का अनुभव 
करता है, ऐसी ही कुछ ध्वनि शलोक के चतुर्थ पाद से निकलती है। इतिवृत्त को 
उपसंहृत करने में नाटककार को तीन अंक (5, 6 और 7) लिखने 
पड़ते हैं। अतः: यहाँ पहुँचकर उन्हें क्लेश का अनुभव होना स्वाभाविक 
ही है। 

नाटक की मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निरवेहण इन पाँच सन्धियों की 
अभिव्यक्ति विशाखदत्त ने 'मुहूर्लक्ष्योदर्भेदा मुहुरधिगमाभावगहना' (5/3) 
इस श्लोक द्वारा भी की है। पुनः: आगे चलकर तत्‌ कि निमित्तं कुकविकृत- 
नाटक स्थेवान्यन्मुखेध्न्य निवेहणे' (पू० 265) कहकर वहू इस बात की 
सूचना देते हैं कि अकुशल नाटककार के द्वारा विन्यस्त इतिवृत्त में मुखसन्धि में 
कुछ और होता है ओर निर्वहण सन्धि में कुछ और। अर्थात्‌ दोनों में कोई 


विशाखदत्त की बहुज्ञता 27 


सामड्जस्य नहीं रहता । इन सब सन्दर्भों द्वारा विशाखदत्त अपने नादूय- 
शास्त्रीय ज्ञान का परिचय पाठकों को करा देते हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि वह 


ताट्यशास्त्र के अच्छे ज्ञाता हैं और उसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने इस नाटक की 
' मंरचना की है। 


राजनीतिश[स्त्र 


विशाखदत्त कौटिलीय अर्थशास्त्र के महान्‌ ज्ञाता थे; जिसका प्रभाव इस 
नाटक में स्थान-स्थान पर दिखायी पड़ता है । इसके अतिरिक्त कामन्दकीय नीतिसार 
का उन्होंने सम्यक्‌ अध्ययन किया था। प्रो. हमत याकोबी इसका समय तृतीय 
शताब्दी ई० में मानते हैं, जबकि अच्य विद्वान्‌ चतुर्थ शताब्दी | कामन्दक बिष्णुग्ुप्त 
चाणक्य को गुरुवत्‌ पूज्य मानते हैं औौर अपनी अपार श्रद्धा इन शब्दों में व्यक्त 
करते हैं--- 


वंशे विशालवंशानामृषीणामिव भूयसाम्‌ । 
अप्रतित्राहकाणां यो बभूव भुवि विश्ुतः ॥॥ 


जातवेदा इवारचिस्मान्‌ वेदान्‌ वेदकिदां वर: । 
यो5धीतवान्‌ सुचतुरश्चतुररोष्प्येक बेदवत्‌ ॥। 


यस्थाभिचारवर्ज ण वज्नज्वलनत्तेजस: । 
पपात मूलतः श्रीमान्‌ सुपर्वा नन्दपर्वेतः ।। 


एकाकी मन्‍्त्रशकत्या यः शक्‍त्या शक्तिधरोपमः। 
आजहार नृचन्द्राय चन्द्रगुप्ताय मेदिनीम्‌ ॥॥ 


नीतिशास्त्रामृतं श्रीमानर्थशास्त्रमहोदधे: । 
य उद्ध्ने नमस्तस्मे विष्णुगुप्ताय वेधसे ॥ (नोतिसार /2-6) 


अर्थात्‌ विशालवंश वाले, ऋषियों के समान प्रतिग्रह न करनेवाले पूवेज़ों के 
उन्नत वंश में जितने जन्म लेकर पृथ्वी में डयाति को अजित किया, जो ज्योतिष्मान्‌ 
अग्नि के समान है, वेदज्ञों में श्रेष्ठ जिसने चारों वेदों का एक वेदवत्‌ अध्ययन किया, 
वज्र के समान जाज्वल्यमान तेजवाले जिसके अभिचारकर्म रूपी वज से सुन्दर पर्व 
(अवयव या चरित) वाला ननन्‍्दरूपी पर्वत मुलत: धराशायी हो गया, शक्तिशाली 
कारतिकेय के समान जिसने अकेले ही अपनी मंत्रशक्ति से मनुष्यों में चन्द्र चन्द्रगुप्त 


28 विशाखदत्त 


को पृथ्वी का राज्य प्रदान क्रिया और जिस श्रीमान ने अर्थ-शास्त्ररूपी' महोंदधि' को 
मथकर नीतिशास्त्ररूपी अम्नृत को निकाला, उस परम बुद्धिमान चाणक्य को प्रणाम 
है। 

इन दोनों राजनीतिपरक शास्त्रों का मुद्राराक्षत पर कितना प्रभाव है, यह 
पृथक्‌ रूप में विचार करने का विषय है। विशाखदत्त ने तीक्षषरसद (पृू० 22) 
प्रधानप्रक्रति (प० 69) तन्त्रयुक्ति मण्डल, मन्त्र (2/) परक्ृृत्योपजाप (प० 43) 
तीक्षण-मृदु (3/5) अन्त: कोप-वाह्मकोप (पृ० 75-76) आभिगामिक गुण 
(पृ० 93), व्यसन (प० 204) षडगुण (6/4) द्रव्य-अद्रव्य (7/4) आदि 
अनेक पारिभाषिक शब्दों को अर्थशास्त्र से लिया है, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है 
कि मुद्राराक्षस पर कौटिलीय अथ॑ैशास्त्र का सर्वाधिक प्रभाव है। इसके अतिरिक्त 
प्रथक अंक (प्ृ० 69) में विशाखदत्त ने चाणक्य के सहाध्यायी मित्र इन्दु शर्मा 
नामक ब्राह्मण को औशनसी दण्डनीति में पारंगत बताया है, इससे यह ध्वनित होता 
है कि वह शुक्राचार्य की दण्डनीति में भी परम प्रवीण थे । 


ज्योतिश्शास्त्र 


अन्य शास्त्रों की भाँति ज्योतिश्शास्त्र में भी विशाखदत्त निष्णात थे। इस बात 
की सूचना उन्होंने सवंप्रथम सूत्रधार के मुख से आयें, कृतअमो5स्मि चतुःषष्ट्यगे 
ज्योतिश्शास्त्रे' और आगे चलकर चाणक्य की' अस्ति चास्माक॑ सहाध्यायि मित्र- 
मिन्दु शर्मा नाम ब्राह्मण:। स चौशनस्यां दण्डनीत्यां चतुःषष्टयगे ज्योतिश्शास्त्रे च 
पर॑ प्रावीण्पमुपगत:' (पृ० 69) इस उक्त द्वारा दी है। चन्द्रग्रहण की पूरी संभावना 
होते हुए भी बुध का योग कैसे उसे रोक देता है, इसकी उन्हें जानकारी थी। 
टीकाकार ढुंढिराज ने इस प्रसंग में व्यास संहिता में आये गर्ग के वचनों को इस 
प्रकार उद्धृत किया है--- 


ग्रहप0जुचकरसंयोगं दृष्टवा न॒ग्रहणं वर्देत्‌ । 
यदि न स्थादूबुधस्तत्र युद्ध दृष्टवा गृह वर्देत्‌ ॥ 


वह ज्योतिश्शास्त्र के 64 अंगों में पारंगत थे, इसकी ओर संकेत उन्होंने 
उपर्युक्त सन्दर्भों द्वारा करा दिया है। पुनः द्वितीय अंक में ज्योतिषी के लिए 
सांवत्सरिक शब्द का प्रयोग किया है---'सांवत्सरिकादेशादधराव्रसमये चन्द्रगुप्तस्य 
नन्दभवनप्रवेशों भविष्यत्ि । विषाखदत्त ज्योतिषसम्बन्धी अपने विशेष ज्ञान 
का परिचय चतुर्थ अंक के अन्त में राक्षत और क्षपणक संवाद द्वारा कराते 
हैं । 


इन संवादों में ज्योतिष के गृढ़ रहस्यों की चर्चा है, जिन्हें वही व्यक्ति भली- 


विशाखदत्त की बहुज्ञता 29 


भाँति समझ सकता है, जिसको ज्योतिष का सम्यक्‌ ज्ञान हो । उस समय कुछ लोग 
तिथि की अनुकूलता को महत्त्व देते थे और कुछ लोग नक्षत्र की अनुकूलता को; 
लेकिन विशाखदत्त संभवत: लग्न की अनुकूलता को सर्वोपरि मानते थे, तभी 
उन्होंने तिथि की अपेक्षा लग्न को चौंसठ गुणा बढ़ाकर बताथा है। इस प्रकार 
का वर्णन उनके ज्योतिष सम्बन्धी गम्भीर ज्ञान का परिचायक है। उन्होंने 
इस शास्त्र का अध्ययन करने में बड़ा श्रम किया था, यह बात उनके द्वारा 


प्रयुक्त 'कृतश्रम' शब्द (कृतश्रमो5स्मि चतु:षष्टयड्गे ज्योतिशशास्त्रे) से प्रकट होती 
जन 
है । 


छन्दःशास्त्र 


मुद्राराक्षस का छन्‍्द की दृष्टि से अध्ययन करने से पता चलता है कि विशाख- 
दत्त छन्‍्दशास्त्र के भी ज्ञाता थे प्रो. ध्रुव ने मुद्राराक्षस के अपने संस्करण के 
परिशिष्ट 'अ' में उन सभी छनन्‍्दों की स्थान निर्देशपूर्वक सूची दी है, जो इस नाटक 
में प्रयुक्त हुए हैं। छल्द हैं--अनुष्टुपू, इन्द्रव्जञा, उपजाति, बंशस्थ, प्रहषिणी, 
रुचिरा, वसन्ततिलका, मालिती, शिखरिणी, हरिणी, पृथ्वी, मन्दाक्रान्ता, शार्दल- 
विक्री डित, सुवदना, स्रग्धरा, माल्यभारिणी, पुष्पिताग्रा तथा आर्या। इन सभी 
छन्दों में शार्दूलविक्रीडित का 37 बार, स़्र्धरा, का 24 बार और आर्या का 27 
बार प्रयोग हुआ है। सर्वाधिक प्रयुक्त छन्द यही हैं। इससे विशाखदत्त की इन 
छन्दों के प्रति विशेष रुचि का आभास होता है। इनमें भी संभवत: स्नग्धरा विशाख- 
दत्त का अति प्रिय छन्‍्द है, जो शार्दटूलविक्री डित की भाँति सभी अंकों में आया है। 
इस नाटक के गम्भीर राजनैतिक कथानक के अनुरूप ही इस छन्द का प्रयोग हुआ 
है। नादककार इसका आदि, मध्य और अत में प्रयोग करना भूलते नहीं। 
प्रारम्भिक नान्दी पद्मों में, मध्य में वेतालिकों द्वारा शरदुवर्णेन में तथा अच्त में 
भरतवाक्य में इसी छन्द का प्रयोग हुआ है। ख्नग्धरा में एक अक्षर की न्यूनता कर 
देने से सुबदता छन्‍्द बन जाता है। ख्नग्धरा के प्रत्येक पाद में 2 अक्षर होते हैं 
तो सुवदना में 20 अक्षर | चतुर्थ अंक में मलयकेतु जहाँ शोण को पारकर सैन्य 
पाटलिपुत्र में प्रवेश करने की बात करता है, वहाँ उसकी त्वरा को ख्रग्धरा के 
स्थान पर सुवदना को अपनाकर बड़ी सुन्दरता के साथ व्यक्त किया गया है। 
सम्पूर्ण नाटक में इसी स्थान पर इस छन्द का प्रयोग हुआ है। जिस श्लोक में इसका 
प्रयोग हुआ है, वह इस प्रकार है-- 


30 विशाखदत्त 


उत्तुद्गास्तुज्ञ कूलं स्रतमदसलिलाः: प्रस्यन्दिसलिलं 

श्यामा: श्यामोपकण्ठद्रुममतिमुख रा: कल्लोलमुखरम्‌ 

स्रोत: खातावसीदत्तटमुरुदशने रुत्सादिततदा: 

शोणं सिन्दूरशोणा मम गजपतयः पास्यन्ति शतश: ।। (4/6) 


यहाँ विशाखदत्त ने इस छन्द का प्रयोग साभिप्राय किया है। किसी कार्य को 
बिना सोचे-विचारे शी क्षता में करने का जों मलयकेतु का स्वभाव है, उसकी इसके 
प्रयोग द्वारा व्यञ्जना की गयी है। इससे स्पष्ट होता है कि विशाखदत्त ने रस- 
भावानुकूल छंदों की योजना की है, जिसकी ओर संकेत क्षेभेन्द्र ने इस रूप में किया 
है--- 


काव्ये रसानुसारेण वर्णनानुग्ुणेन च। 
कुर्बीत सर्वेवृत्तार्ना विनियोग॑ं विभागवित्‌ ।। (सुबृत्ततिलक 3/7) 


न्याय-वेशेषिक शास्त्र 


मुद्राराक्षस के पञचम अंक में आये एक श्लोक से विशाखदत्त का न्याय- 
बैशेषिक दर्शन में प्रावीण्य प्रकट होता है। वह श्लोक इस प्रकार है-- 


साध्ये निश्चितमन्वयेन घटित बिश्रत्सपक्षे स्थिति 

व्यावृत्तं च विपक्षतों भवति यत्तत्साधनं सिद्धये । 

यत्साध्यं स्वेयमेव तुल्यमुभयोः पक्षें विरुद्ध च यत्‌ 

तस्यांडूगीकरणेन वादिन इव स्यात्स्वामिनों निग्नहः ॥ (5/0) 


न्यायदर्शन में अनुमानप्रमाण के प्रसंग में अन्बयव्यतिरेकी हेतु को प>चरूपोपन 
कहा गया है। पञ्चरूप हैं--पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधित- 
विषयत्व और असम्प्रतिपक्षत्व। इन पञ्चरूपों से युक्त हेतु सद हेतु कहलाता है 
और वह ॒ अपने साध्य को सिद्ध करने में समर्थ होता है। नैयायिक हेतु की पझच- 
रूपता को मानते हैं और वेशेषिक त्रिरूपता को | न्याय में पञचरूपता के प्रवरतंक 
उद्योतकर हुए हैं और वैशेषिक दर्शत के प्रशस्तपादभाष्य में हेतु की त्रिरूपता 
को स्वीकार किया गया है | ये तीन रूप हैं--पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्या- 
चत्ति, जिनकी ओर इस श्लोक में संकेत किया गया हैं | तात्पयं यह है कि धूमवत्त्व 
हेतु की पक्ष-पर्वते और सपक्ष-महानस (रसोई घर) में सत्ता है, लेकिन विपक्ष- 
महाहृद (तालाब) में वह नहीं है। ऐसे हेतु को अपनाने से साध्यवस्तु की सिद्धि 


विशाखदत्त की बहुन्नता 34 


होती है; लेकिन इसके विपरीत हेतु को अपनाने से कभी भी साध्यवस्तु की 
सिद्धि नहीं हो सकती | जो साधन ही साध्य हो, पक्ष और विपक्ष में समान हो 
और यहाँ तक की अपने पक्ष ही में विरुद्ध पड़ता हो, ऐसे असूद हेतु को अपनाने 
से साध्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। राक्षस द्वारा कहे गये उपर्युक्त श्लोक 
का आशय यह है कि राक्षस को ऐसा कुछ आभास है कि उसकी सेना में चाणक्य 
के भद्रभटादि लोग आकर मिल गये हैं। सेना ही विजय का साधन होती है और 
यदि वही विशुद्ध नहो तो शत्रु पर कैसे विजय प्राप्त की जा सकती है। अतः 
राक्षस को यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी विजय संदिग्ध है। इस 
प्रकार इस एलोक के द्वारा विशाखदत्त का न्याय-बशेषिक दर्शन का ज्ञान सूचित 


होता है । 


आयुववेद अथवा चिकित्सा शास्त्र 


मुद्राराक्षस के अध्ययन से विशाखदत्त के आयुर्वेदविषयक ज्ञान का भी पता 
चलता है। नाटक के द्वितीय अंक में अभयदत्त नामक वैद्य का उल्लेख है (अथ 
तत्रत्येन भिषजाअभयदत्तेन किमनुष्ठितमू--१० 29) । वैद्य लोग किसी प्रक्रिया 
से ऐसी औषधि तैयार करते थे, जो विपमय होती थी और जिसके पीने से मनुष्य 
की सद्यः मृत्यु हो जाती थी | इस वैद्य ने चन्द्रगुप्त को मारने के लिए इसी प्रकार 
की औषधि बनायी थी, ले किन स्वर्णपात्र में डालने से उसका रंग बदल गया, जिससे 
चाणक्य को सन्देह उत्पन्न हो गया और उसने उसने उसी औषधि को वैद्य अभयदत्त 
को पिला दिया | फलत: उसकी मृत्यु हो गयी । 

प्राचीनकाल में जन्म से ही स्वल्प मात्रा में शरनेः-शें विष देकर विष- 
कन्याओं को तैयार किया जाता था, जिनके सम्पर्क में आने से मनुष्य की मृत्यु 
हो जाती थी। मुद्राराक्षस में इसी विषकन्या का उल्लेख है, जिसके द्वारा 
चाणक्य ने पर्वतक का वध कराया था, यद्यपि उसे राक्षस ने चन्द्रगुप्त को मारने 
लिए भेजा था। राक्षस अपने प्रयोग की विफलता का इस प्रकार वर्णन करता 


है--- 


कन्या तस्य वधाय या विषमयी गूढं प्रयृक्ता मया 
दैवात्परव॑तकस्तया स निहतो यस्तस्य राज्याधेहत्‌ । 
ये शस्त्रेषु रसेषु च प्रणिहिचास्तरेव ते धातिता 
मौयेस्येव फलन्ति पश्य विविधश्रेयांसि मन्‍्नीतय: ।। (2/6) 


यहाँ विष के लिए “रस' शब्द का प्रयोग हुआ है। सुश्रुत (/5) में कहा गया 
है कि विषकन्या के उपयोग से मनुष्य क्षण भर में अपने प्राणों को छोड़ देता था-- 


32 विशाखदत्त 


विषकन्योपयोगाद्वा क्षणाज्जह्मादसूमू नरः। “अष्टांग-संग्रह-सूतरस्थानम्‌” में ऐसा 
उल्लेख है कि जन्म से ही विष देकर जिस कन्या को विषमयी किया जाता था, 
उसके स्पर्श एवं उच्छवास आदि से मनुष्य की मृत्यु हो जाती थी। उसके परीक्षण 
का उपाय भी वहाँ बताया है कि उसके मस्तक के स्पर्श से पुष्प और पल्‍लव मलिन 
हो जाते हैं; शय्या में खटमल और बत्त्रों में जूँ मर जाती हैं। अत: उस विषकन्या 
से मनुष्य को सदैव दूर रहना चाहिए-- 


आजन्म विषसंयोगात्‌ कन्या विषमयी कृता । 
स्पर्शोच्छवासादिभिहुन्ति तस्यास्त्वेततू्‌ परीक्षणम्‌ ॥। 
तन्मस्तकस्य संस्पर्शान्म्लायेते पुष्पपललवों । 
शय्यायां मत्कुणबेस्त्रे यूकाभि: स्नानवारिणा ।। 
जन्तुभिम्रियते ज्ञात्वा तामेव॑ दूरतस्त्यजेत्‌ ॥! 


सपे के विष का निवारण करनेवाली दिव्य ओषधियाँ हिमालय पर मिलती 
हैं (हिमवति दिव्यौष धय: शीर्ष सप॑: समाविष्ट: /22), इसका भी विशाखदत्त 
को ज्ञान था। उस समय कुछ ऐसी भी महाव्याधियाँ होती थीं, जिसका कोई 
इलाज नहीं था (किमौषध-पथातिगैरुपहतो महाव्याधिभि:---6/ 6)। घाव होने 
पर मलहम-पट्टी की जाती है, इस चिकित्सा से भी वह परिचित थे । इसका उल्लेख 
इस एलोक में हुआ है--- 


स्वनिर्मोकच्छेदे: परिचितपरिक्लेशकृपया । 
एवसन्तः शाखानां ब्रणमिव निबध्नन्ति फणिन: ॥। (6/2) 


इस प्रकार यह स्पष्ट है विशाखदत्त आयुर्वेद अथवा चिकित्सा शास्त्र आदि 
के ज्ञाता थे । 


पुराणेतिहास एवं अन्य नाद्यग्रन्ध 

अन्य शास्त्रों के साथ विशाखदत्त ने पुराण महाभारत, शूद्रक एवं 
कालिदास के नाठकों का भी सम्यक्‌ अध्ययन किया था, यह मुद्राराक्षस के पढ़ने 
से ज्ञात होता है। लक्ष्मी समुद्र-मंथत करने पर समुद्र से उत्पन्त होने के कारण 
अकुलीन हैं (अपि च अनभिजाते)। शेषनाग अपने फणों पर पृथ्वी को धारण 


. ये इल्लोक प्रो. श्ुव के मुद्राराक्ष स के संस्करण के तोद्स पृ० 40 पर उद्धुत हैं । 


विशाखदत्त को बहुक्ञता 33 


करते हैं (कि शेपस्य भरव्यथा न वपुषिक्षमां न क्षिपत्येष यतू--2/78) ; 
भगवान्‌ विष्णु चातुर्मास्थ में क्षी रसागर में शेष-शय्या पर शयन करते हैं (नागाडक॑ 
मोक्‍्तुमिच्छो: शयनमुरु फर्णाचक्रवालोपधानमू---3/2) तथा प्रलयकाल में जल 
से पृथ्वी के डूब जाने पर भगवान्‌ वराह्यवतार धारण कर उसका उद्घधारकरते हैं 
(यथ्य प्राग्दल्तकोर्टि प्रलयपरिगता शिक्षिये भूतधात्री - 7/8) इत्यानि वर्णन 
हमारे नाटककार के पौराणिक ज्ञान के परिचायक हैं। इसी प्रकार राजा शिबि ने 
किप्त प्रकार अग्निरूपधारी कपोत की रक्षा में इन्द्र का रूप धारण करनेवाले प्रयेन 
को अपना मांस काट-काट कर अपित कर शरणागतवत्सलता दिखायी, महाभारत 
(वनपर्व, अध्याय 3) के इस आख्यान से भी वह परिचित थे । इस कथा की ओर 
संकेत उन्होंते राक्षत की इस उक्ति द्वारा किया है, जिसमें वह शरणागत की रक्षा 
करने में चन्द्ददास की तुलना राज शिबि से करते हैं--- 


शिबेरिव समुद्भूत॑ शरणागतरक्षया। 
निचीयते त्वया साधो यशोडपि सुहृदा बिना।। (6/8) 


इसी कथा का पुनः उल्लेख वह सप्तम अंक, इलोक पाँच में करते हैं---नीत॑ 
येन यशस्विनातिलघुतामौशीनरीय यशः ।' कर्ण ने इन्द्र द्वारा प्रदत्त शर्क्ति को 
किस प्रकार अर्जुन को मारते के लिए रख छोड़ा था और #ष्ण की नीति-चातुरी 
से कैसे हिडिम्बा राक्षसी का पुत्र घटोत्कच मारा गया, महाभारत (द्रोणपर्व॑, 
अध्याय !79) के इस आख्यान की ओर संकेत नाटककार ने इस श्लोक में किया 


है--- 


कर्णनेव विषाड-गर्नकपुरुषब्यापाविनी रक्षिता 
हन्तुं शक्तिरिवाजनं बलवती या चन्द्रगुप्त॑ मया। 
सा विष्णोरिव विष्णुगुप्तहतकस्यात्यन्तिकश्नेयसे 
हैडिम्बेयमिवेत्य पर्वतनुपं तद्वध्यमेवावधीत्‌ ॥। (2/5) 


महाभारत के अन्त में क्रूर नियति द्वारा किस प्रकार वृष्णिवंश का विनाश 
हुआ, मौसलपर्व की इस घटना से भो विशाखदत्त परिचित थे। इसका उल्लेख 
उन्होंने इस श्लोकार्ध द्वारा किया है-- 


वुष्णीनामिव नीति विक्रमगृणव्यापारशान्तद्विषां 
नन्दानां विपुले कुलेडकरुणया नीते नियत्याक्षयम्‌ ॥(2/4) 


इस प्रकार विशाखदत्त ने अपने महाभारत-नज्ञान को यत्र-तत्र स्फुट श्लोकों 


उब विशाखदत्त 


हारा व्यक्त किया है। इसके अतिरिक्‍त गुणादूय की बुहत्कथा का भी उन्होंने 
अध्ययन किया था, जिसका इस नाठक पर पर्याप्त प्रभाव है । यही 
नहीं, कालिदास के अभिन्नानशाकुन्तलम्‌ से उन्होंने अंग्रुलिमुद्रा का वृत्तान्त लिया 
होगा, ऐसा प्रत्तीत होता है। शूद्रक के मृच्छकटिक से तो वह प्रभावित थे ही; 
क्योंकि सातवें अंक में जो बध्यस्थान का दृश्य है, उस पर मृच्छकटिक के बध्यस्थान 
(अंक 0) के दृश्य की निश्चित रूप से छाप है। 

इस प्रकार मुद्राराक्षस के अध्ययन से विशाखदत्त के विविध शास्त्रों के 
गम्भीर ज्ञान का परिचय होता है। उतके समान शास्त्र-वैदुष्य से युक्त कवि 
अथबा नाटककार बहुत कम देखने को मिलेंगे । अतः ताटक में चाणक्य के लिए 
राक्षस के द्वारा की गयी प्रशस्ति को विशाखदत्त के लिए भी प्रयुक्त कर सकते 
हैं 


आकर: सर्वृशास्त्राणां रत्तानामिव सागर: ॥ (7/7) 


मुद्राराक्षस : इतिवृत्त और स्रोत 


भरतपुनि ने नाट्यशास्त्र (9/[) में 'इतिवृत्ततु ताट्यस्य शरीरं परि- 
कीतितम्‌' ऐसा कहकर इतिवृत्त को नाट्य का शरीर बताया है। इसी नांदूय शरीर 
में रसरूपी आत्मा की प्रतिष्ठा होती है । जैसे रमणी-शरीर सुन्दर होने पर लोगों 
के चित्त को आह्यादित कर देता है, उसी प्रकार इतिवृत्त के सुन्दर होने से लोग 
उपके प्रति स्वयमेव आक्रृष्ट हो जाते हैं । अभिज्ञान-शाकुन्तल की लोकप्रियता का 
कारण मेरे विचार से रसादि की स्थिति की अपेक्षा इतिवृत्त का सुन्दर और 
चित्ताकषंक होना है। मुद्राराक्षत का कथानक उसके इतिवृत्त के कारण ही इतना 
लोकप्रिय और ग्राह्म हुआ है। बृहृत्कथा और पुराणों से मूल कथानकु को लेकर 
विशाखदत्त ने उसे इतने सुन्दर ढंग से सजाया-संवारा है कि लोग उसके प्रति 
खिचते चले जाते हैं। उसकी सुन्दर योजना विशाखदत्त के नाट्य-रचना-कौशल का 
परिचय करा देती है; तभी ढुंढिराज ने उन्हें 'अद्धुतरसविलसत्संविधानप्रवीण:' 
कहा है। वह इतिवृत्त कंसा है, उसे संक्षिप्त रूप में यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। 

नाठक के प्रारम्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि चाणक्य ने नन्‍दों का 
विनाश कर चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र के सिहासत पर बिठा दिया है; लेकिन नन्‍्दों 
का योग्य और स्वामिभक्त मन्‍्त्री उसे सिहासनच्युत करते में सतत्‌ प्र यत्तशील है। 
चाणक्य सोचता है कि जब तक राक्षस को वश में नहीं किया जायेगा, तब तक 
चन्द्रगुप्त सिहासत पर स्थिरतापूर्वक नहीं बैठ सकता । राक्षस भी आसानी से वश 
में आने वाला नहीं; क्‍योंकि नन्‍्द-वंश के प्रति उसकी निरतिशय भक्त है। जब 
तक नन्द वंश का कोई भी व्यक्ति जीवित रहेगा, वह चन्द्रगुप्त प्रदत्त सचिव पद 
कभी स्वीकार नहीं करेगा। इसी दृष्टि से नन्‍्दवंश के अन्तिम शासक सर्वार्थसिद्धि 
को, जो पाटलिपूत्र पर चन्धगुप्त और पर्व॑तेश्वर की सेनाओं द्वारा घेरा पड़ने पर 
प्रजा के ऊपर पड़ने वाले अत्याचारों को नहीं देख सका और तपोवन भाग गया 
था, चाणक्य ने मरवा दिया। लेकिन राक्षस इससे भी विचलित नहीं हुआ 


36 विशाखदत्त 


और उसने पर्वतक-पुत्र मलयकेतु को राजा बनाने का निश्चय कर अपने संघर्ष को 
प्रगत्तिणील रखा | यह मलयकेतु चाणक्य का पक्ष छोड़कर राक्षस के पास चला 
आया था; क्योंकि चाणक्य के एक विश्वस्त व्यक्ति भागुरायण से उसे यह पता 
चला था कि उसके पिता परवंतक को चाणक्य ने ही विषकन्या के प्रयोग से मरवाया 
है और यदि वह बहाँ पाटलिपुत्र में रहेगा, तो चाणक्य उसे भी किसी-न-किसी गुप्त 
उपाय से मरवा देगा। यद्यपि मलयकेतु के राक्षस से मिल जाने पर राक्षस की 
शक्ति द्विगुणित हो गयी फिर भी चाणक्य को अपने बुद्धिबल पर पूरा विश्वास था 
कि वह सब कुछ ठीक कर लेगा और एक-न-एक दित्त राक्षस का निग्रह अवश्य 
करेगा। चाणक्य राक्षस को मरवाना भी नहीं चाहता था, अपितु जीवित रख कर 
ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करना चाहता था, ताकि वह किंकतंव्यविमृढ़ हो चन्द्रगुप्त 
का मन्‍्त्री बनना स्वीकार कर ले। इसी के लिए चाणक्य अपनी कूटनीति का 
सहारा लेता है और अन्ततोगत्वा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। 

चन्द्रगुप्त और पर्वतक की सम्मिलित सेनाओं ने पाटलिपुत्र पर विजय प्राप्त 
की थी; अत: नन्‍्दों के साम्राज्य के अधिपत्ति दोनों व्यक्ति होने चाहिए। चाणक्य 
ऐसा नहीं चाहता था; क्योंकि ऐसा होने से राज्य में द्वैराज्य व्यवस्था होगी और 
उसका आगे चलकर यह दुष्परिणाम होगा, कि दोनों राज्य आपसी संघर्ष के कारण 
नष्ट हो जायेंगे । चाणक्य ने इसीलिए इस व्यवस्था की निन्‍्दा अथ॑शास्त्र (8/2) में 
इस प्रकार की है--- 


द्वेव राज्यमन्योन्यपक्षद्वेषानुरागाभ्यां परस्परसंधर्पेणवा विनश्यति। 


चाणक्य चन्द्रगुप्त को एकच्छन्न सम्राद्‌ के रूप मे देखना चाहता था, तभी 
उसने चद्द्रगुप्त को मारने के लिए राक्षस द्वारा भेजी हुई विषकन्या को क्षपणक 
जीवसिद्धि के माध्यम से पर्वतक के पास भिजवा विया था। पर्बतक बिलासी राजा 
रहा होगा; अतः उसके सम्पक॑ में आने से उसकी मृत्यु हो गयी । अब चाणक्य ने दो 
कार्य किये | पहला कार्य उसने यह किया कि राज्य में उसने यह जनापवाद फैलाया 
कि राक्षस ने हमारे अत्यन्त उपकारक मित्र पर्वतेश्वर को विषकन्या के प्रयोग से 
मरवा दिया है, ताकि राक्षस जो बड़ा ही प्रजाप्रिय था, जनता मे निन्‍्दा का भाजन 
बन जाय और दूसरा कार्य उसने यह किया कि भागुरायण के द्वारा डरवाकर 
मलयकेतु को भगा दिया, जिसने जाकर राक्षस का आश्रय ग्रहण किया । राक्षस 
चाणक्य के इस क्रिया-कलाप से भलीभाँति परिचित था । तभी वह कहता है--- 


साधु कौटिल्य, साधु । 
परिहृतमयश: पातित्तमस्मासु च घातितो$र्ध राज्यहर: । 
एकमपि नीतिबीजं बहुफलतामेति यस्य तव ॥ (2/9) 


मुद्राराक्षस : इतिवृत्त और स्रोत 37 


मलयकेतु राक्षस के पास अकेले नहीं गया था, अपितु उसके साथ कुलूत- 
देशाधिपति चित्रवर्मा, मलयनरपति सिंहनाद, कश्मीरदेशाधिराज पुष्कराक्ष, 
सिन्धुदेश का राजा सिन्धुषेण और पारसीकाधिराज मेघ--ये पाँच राजा भी अपनी 
विशाल सेनाओं के साथ गये थे। चाणक्य ने एक कपटलेख लिखवाकर अपने 
गुप्तचर सिद्धार्थक द्वारा उसे शत्रुपक्ष में पहुँचाकर मलयकेतु का इन राजाओं के 
प्रति अविश्वास पैदा करवा दिया । फलत: अपनी मूर्खतावश बह पाँचों राजाओं को 
मरवा देता है; जिससे उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है । कपटलेख के कारण राक्षस 
और मलयकेतु में भी फूट पड़ जाती है। वह राक्षस को त्याग देता है; लेकिन अन्त 
में चाणक्य के लोगों द्वारा पकड़ा जाता है। 
चाणक्य यह जानने के लिए कि पाठलिपुत्र में कौन लोग नन्‍्दानुरक्‍त हैं, 
निपुणक नामक अपने गुप्तचर को भेजता है। वह हाथ में यमयट लिए पाठलिपुत्र 
की सड़कों पर घमता है और यह गीत गाता है--- 


प्रणमत यमस्य चरण कि कार्य दैवतेरन्य: ) 
एप खल्वन्यभक्तानां हरति जीवं परिस्फुरन्तम्‌ ॥ 


पुरुषस्य जीवितव्यं विषमाद्भवति भव्तिन्गृहीतातू । 
मारयति सर्वलोक॑ स यस्तेन यभेन जीवामः ॥ 


अर्थात्‌ यम के चरणों में प्रणाम करो; अन्य देवों की उपासना करने से क्या 
लाभ; क्योंकि अन्य देवों की उपासना करने वाले लोगों के भी फड़फड़ाते प्राणों 
का यम हरण कर लेता है। पुरुष का जीवन तभी चल सकता है, जब उसने अपनी 
भक्ति से उस क्र यम को सन्तुष्ट कर लिया हो | जो सभी को मारता है, उसी की 
कृपा से हमारा जीवत चलता है । 

इस गाथा को गाते हुए वह मणिकार श्रेष्ठी चन्दनदास के घर के निकट 
पहुँचता है। उसकी आवाज़ सुनकर एक पाँच वर्ष का बालक वाल-सुलभ- 
कुतृहलवश घर से निकलने लगता है। तभी घर के अन्दर 'हाय निकल गया, हाथ 
निकल गया'---इस प्रकार का कोलाहल होने लगता है। फिर उसी के पीछे एक स्त्री 
आती है और दरवाज्ञे के अन्दर से ही उसे पकड़ कर ले जाती हैं। उस बालक को 
झकझोर कर पकड़ने में उसकी अँगुुली से एक अँगूठी गिर जाती है, जो पुरुष की' 
अंग्रुलि-मुद्रा होने से उसकी अँगुली में ढीली थी। वह स्त्री सम्भ्रम में यह नहीं 
जान पाती कि उसकी अँगूठी गिर गयी है। अँगूठी देहली के बाहर लुढ़कती हुई आती 
है और उस पर अमात्य राक्षस का नाम अंकित देख, निपुणक उसे उठा लेता है और 
चाणक्य के पास पहुँचा देता है। इस मुद्राधिगम वृत्तान्त से चाणक्य समझ जाता 


38 विशाखदत्त 


है कि पाटलिपुत्र से भाग गये राक्षप्त ने अपनी पत्नी आदि को अपने मित्र 
चन्दनदास के घर में रख छोड़ा है। मुद्रा मिलते ही सारी योजना चाणक्य के 
मस्तिष्क मे घूम जाती है और अन्त में इसी मुद्रा द्वारा उसकी कूटनीतिवश 
राक्षस पकड़ा जाता है। राक्षस की अंगरुलिमुद्रा ही उसके निग्नह में कारणभूत होती 
है, तभी इस नाटक का नाम मुद्राराक्षस रखा गया है, जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार 
होगी, 'मुद्र॒या अंगुलिमुद्रया गुृहीतं राक्षममधिक्ृित्य कृतोग्रन्थ इति मुद्राराक्षसम्‌ ।” 
यह भाग्य की विडम्बना है कि नन्‍्दों का नीतिनिपुण महामात्य स्वयं अपनी 
अंगुुलिमुद्रा द्वारा पकड़ा जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि विशाखदत्त ने अपने 
नाटक का नाम कितना औचित्यपूर्ण रखा है। हो सकता है नाटककार को इस 
नामकरण की प्रेरणा कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्‌' से मिली हो। जो भीः 
कुछ हो, इस मुद्रा का मुद्राराक्षस में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । 

चाणक्य अपने विश्वस्त गुप्तचर सिद्धार्थक द्वारा कायस्थ शकटदास से उक्त 
कपटलेख लिखवाता है, जो राक्षस का व्यक्ति है, ताकि आगे चलकर यह सिद्ध 
किया जा सके कि राक्षस ने अपने मित्र शकठदास से इसे लिखाकर चन्द्रगुप्त के 
पास किसी बहुत बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए भेजा है और मलयकेतु उसे सनन्‍्देह की 
दृष्टि से देखे । इसी को कार्यान्वित करने के लिए वह अमात्य राक्षस की अँगूठी से 
उसे मुद्रित करवाता है और अंगुलिमुद्रा के साथ उसे सिद्धार्थंक को दे देता है तथा 
आगे उसे क्‍या करना है, इसके विषय में उसे आदेश देता है । वह कहता है कि 
सर्वप्रथम तुम वध्यस्थान जाओ; वहाँ राजद्रोह के अपराध में पकड़े गये शकटदास 
को वध्यस्थान की ओर ले जाते हुए चाण्डालों को तुम दाहिनी आँख को संकुचित 
कर संकेत देना और जब वह बनावदी भय से इधर-उधर भागने लगें, तो शकटदास 
को वहाँ से ले जाकर राक्षस के पास पहुँचा देना। अपने मित्र के प्राण बचाने के 
उपलक्ष्य में राक्षस तुम्हें पारितोषिक देगा, उसे स्वीकार करना ओर कुछ दिन 
राक्षस का विश्वासपात्र बनने के लिए वहीं रहना तथा जब शत्रु की सेना पाटलिपुत्र 
के निकट पहुँच जाये, तव हमारे इस महान्‌ प्रयोजन का अनुष्ठान करना । सिद्धा- 
थैंक चाणक्य के आदेश का यथोपदिष्ट रूप में पालन करता है। 

इधर चाणक्य चन्दनदास को बुलाता है और यह बताने के लिए बाध्य करता 
है कि राक्षस की पत्नी और पुत्र उसके घर में छिऐ हुए हैं। चन्दनदास के न बताने 
पर वह उसे आतंकित कराता है। उसको डराने के लिए वह जीवसिद्धि क्षपणक को 
राजद्रोह के अपराध में पाटलिपुत्र से अपमान के साथ निकलवा देता है और 
शकटदास को शूली पर चढ़ाने का आदेश देता है। यह सब चाणक्य योजनाबद्ध रूप 
में करता है ! यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जीवसिद्धि चाणक्य का सहपाठी 
मित्र है, जो नन्‍दों के समय में ही पाटलिपुत्र में आकर अमात्य राक्षस का बहुत प्रिय 
और विश्वासभाजन बन गया था । पाटलिपुत्र से निष्कासित होने पर वह राक्षस के 


मुद्राराक्षस : इतिवृत्त और ख्ोत 39 


यहाँ चला जाता है और इस प्रकार चाणक्य अपने एक परमप्रिय आत्मीयजन को 
राक्षस के पीछे लगा देता है, ताकि उसकी गतिविधि का उसको पता चलता रहे। 

देशद्रोहियों के प्रति इस उग्र दण्ड को देखकर भी जब चन्दनदास विचलित नहीं 
होता और राक्षस के पृत्र-कलत्र को चाणक्य को नहीं समपित करता, तो उसे इस 
अपराध के फलस्वरूप कारागार में पत्नी और पृत्र के साथ डाल दिया जाता है और 
उसके लिए चद्द्रगुप्त से प्राणगहर दण्ड का विधान करवाया जाता है । अब चाणक्य 
को विश्वास हो चला है कि राक्षस अवश्य पकड़ा जायेगा; क्योंकि जिस प्रकार 
चन्दनदास ने राक्षस के पृत्र-कलत्न की रक्षा करने में अपने प्राणों का मोह नहीं 
किया, उसी प्रकार राक्षत भी इनकी जीवन-रक्षा करने में अपने जीवन का मोह 
छोड़कर पाटलिपुत्र आयेगा और पकड़ा जायेगा ! 

इसी बीच चाणक्य की पूर्वनिर्धारित नीति के अनुसार सिद्धार्थथ शकटदास 
को वध्यस्थान से ले जाकर राक्षस के यहाँ पहुँचा देता है। उन्हें पकड़वाने के लिए 
चाणक्य भागुरायण को आदेश दिलवाता है तो पता चलता है कि भागुरायण भी 
भाग गया है। पुत्त: भागुरायण को पकड़ने के लिए भद्गभट, पुरुषदत्त हिंगरात, 
बलगुप्त, राजसेन, रोहिताक्ष और विजयवर्मा को आदेश दिलवाता है तो ज्ञात 
होता है कि ये लोग तो प्रात:काल ही भाग गये थे। इस प्रकार चाणक्य बड़ी ही 
चतुरता से अपने विश्वसनीय लोगों को शत्रुपक्ष में भिजवा देता है और ये सब अन्त 
में चाणक्य के कार्य को सिद्ध करते हैं । 

राक्षस के पाटलिपुत्र से भाग जाने पर उसके लोगों ने वहाँ क्या-क्या किया, 
इसकी जानकारी देने के लिए विराधगुप्त नाम का गुप्तचर उसके पास आता है, 
जो सपेरे के वेश में पाटलिपुत्र में भ्रमण करता था। वह राक्षस से पाठलिपूत्र का 
सारा वृत्तात्त निवेदित करता है। वह बताता है कि पाटलिपुत्र पर चन्द्रगुप्त और 
पर्वेतेघवर की सम्मिलित सेनाओं द्वारा बहुत दिनों तक घेरा पड़ा रहा और पुर- 
वासियों पर भीषण अत्याचार होता रहा । नन्दबंश का अंतिम प्ररोह राजा सर्वार्थ- 
सिद्धि प्रजा के ऊपर पड़नेवाले इस अत्याचार से उद्विग्गन होकर सुरंग मार्ग से 
तपोवन चला गया, लेकिन चाणक्य ने उसे वहाँ भी मरवा दिया, ताकि ननन्‍्दवंश 
का कोई व्यक्ति जीवित न रहे, नहीं तो उसको राजा मानकर राक्षस संघर्ष करता 
रहेगा। राक्षस ने चन्द्रगुप्त को मारने के लिए जिस विषकन्या को भेजा था, 
चाणक्य की कूटनीति से उसी द्वारा पर्वतक मारा गया | चन्द्रगुप्त के अर्ध॑रात्रि में 
ननन्‍्दभवनप्रवेश की घोषणा होने पर शिल्पी दारुवर्मा ने एक कनक-तोरण बनाया 
था, ताकि जैसे ही चन्द्रगुप्त उसके नीचे से निकले, वह उस पर गिरा दिया जाय | 
चाणक्य इन सब भावी आशंकाओं से अवगत था। अतः उसने पर्वेतक के भाई 
वैरोचक के हाथी को आगे किया, जिसको चाणक्य ने पर्वतक के मर जाने पर आधे 
राज्य का स्वामी बनाया था। वैरोचक और चद्धगुप्त दोनों को समान रूप से 


40 विशाखदत्त 


सुसज्जित और अलंक्ृत किया गया, जिससे परिचित लोगों को भी भ्रम हो गया कि 
इनमें से कौन चन्द्रयुप्त है और कौन वरोचक ! चन्द्रगुप्त की हस्तिनी पर वैरोचक 
को वैठाया गया और चन्द्रगुप्त के अनुयायी राजा लोग वैरोचक का अनुगमन करने 
लगे । राक्षस ने चन्द्रगुप्त को मारने का भार बवरक नाम के एक महावत को सौंपा 
था, उसे वेरोचक की हृस्तिनी पर बैठाया गया । उसने वैरोचक को चन्द्रगुप्त मान- 
कर जैसे ही कटार निकाली, गजवधू उसे अपने ऊपर होने वाला प्रहार समझ कर 
तीव्रगति की अपेक्षा, मन्दगति से चलने लगी। प्रथम गति के अनुसार दारुवर्मा ने 
चन्द्रगुप्त के ऊपर मन्त्रतोरण गिराने की योजना बनायी थी; लेकिन हस्तिनी की 
गति में अन्तर आने से मन्त्रतोरण के गिरने से बर्वेरक मारा गया जो राक्षस का 
व्यक्ति था। पुनः दारुवर्मा ने शेष यन्त्रतोरण गिरा दिया, जिससे वैरोचक मारा 
गया । इस प्रकार चन्द्रगुप्त के आधे राज्य का भागी पर्वंतक-भ्राता वैरोचक भी 
मर गया। अपने लक्ष्य को प्रभ्नष्ट देख दासुवर्मा भागा, लेकिन वैरोचक के पीछे- 
पीछे पैदल चलनेवालों ने लाठी से पीट-पीट कर उम्ते मार डाला। राक्षस ने चन्द्र- 
गुप्त को विषमिश्रित ओषधि पिलाने के लिए अभयदत्त त्तामक वैद्य को नियुक्त 
किया था। चाणक्य ने उसका प्रत्यक्षीकरण किया और सोने के पात्र में देने को 
कहा | उसमें डालने से ओषधि का रंग बदल गया, जिससे चाणक्य को ज्ञात 
हो गया कि इसमें विष मिला हुआ है। पुनः वही ओषधि उस वैद्य को पिला दी 
गयी और वह मर गया । इसी प्रकार चन्द्रगुप्त को मारने के लिए प्रमोदक नाम के 
एक शयनाधिकारी को नियुक्‍त किया गया था। उसके द्वारा अत्यधिक धमव्यय 
करने पर चाणक्य को संदेह हो गया और उसे भी विचित्र ढंग से मरवा दिया गया । 
हसी भाँति सोते हुए चन्द्रगुप्त पर प्रहार करने के लिए राजा के शयन-कक्ष के 
शयनगृह में प्रवेश करने के पूर्व चाणक्य ने उसका सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन किया 
तो उसने देखा कि एक भित्ति-छिद्र से चीटियों की पेक्ति निकल रही है, जो अपने 
मुखों में भात के कणों को लिए हुए है। इससे चाणक्य को सन्देह हो गया कि इस 
जशयनकक्ष के अन्दर कहीं-न-कहीं लोग छिपे हुए हैं । ऐप्ता मानकर उसने उस शयन- 
गह को जलवा दिया, जिससे उसके अन्दर छिपे हुए लोग धूमावरुद्ध दृष्टि होने से 
पिकलने का मार्ग न पा सके और सब जलकर मर गये । 

विराधगुप्त इस वृत्तान्त को बतलाते हुए जब यह कह रहा था कि शकटदास 
को राजद्रोह के अपराध में शूली पर चढ़ा दिया गया, तभी सिद्धार्थक शकटदास को 
लेकर उपस्थित हुआ । शकटदास को सकुशल देखकर राक्षस के आनन्द का ठिकाना 
नहीं रहा | जब उसे यह मालूम हुआ कि सिद्धार्थक ने ही उसके प्राण बचाये हैं, 
तो उसने अपने शरीर से आभूषण उतार कर पुरस्काररूप में सिद्धार्थंक को दे दिये । 
ये वही आभूषण थे, जिन्हें मलयकेतु ने कज्चुकी द्वारा राक्षत को पहनने के 
लिए भेजा था। सिद्धार्थक ने उन भाभूषणों को एक मुद्रा से मुद्रित कर अमात्य 


मुद्राराक्षस : इतिवृत्त और स्रोत 4 


राक्षस के भाण्डागार में रखते हुए कहा कि जब मुझे आवश्यकता होगी, इन्हें ले 
लूँगा। यह बही मुद्रा थी, जो राक्षसनामांकित थी और जिसे चाणक्य ने लेख के 
साथ दे दिया था । 

शकटदास के कहने से सिद्धार्थक वह अंग्रुलिमुद्रा राक्षस को दे देता है। 
विराधगुप्त यह भी सूचना देता है कि संभवत: चाणक्य और चन्द्रगुप्त में किसी 
कारणवश मतभेद हो गया है और हो सकता है कि दोनों में कलह हो जाय; 
यद्यपि यह वास्तविकता नहीं थी । राक्षस इसे सच मान कर विराधग्रुष्त को पुनः 
पाटलिपुत्र भेजता है और कहता है कि वहाँ स्तनकलश नाम का एक वैतालिक 
रहता है, जो हमारा व्यक्ति है। उससे कह देना कि चन्द्रगुप्त की आज्ञा को जब 
चाणक्य भंग करे, तब उत्तेजक एलोकों से चन्द्रगुप्त को चाणक्य के विरुद्ध भड़काता 
रहे । राक्षस यह भी कहता है कि यदि कोई गुप्त सन्देश हो तो उसे करभक नामक 
हमारे गुप्तचर द्वारा प्रेषित करना । 

इसी बीच कुछ विक्रेता आभूषण बेचने के लिए आते हैं और उन्हें बहु- 
मुल्य समझकर राक्षस शकटदास द्वारा खरीदवा लेता है।ये वही आभूषण हैं, 
जो कभी पर्वतक धारण किये हुए था और उसके मरने पर चन्द्रगुप्त ने उमके 
पारलौकिक कृत्य के उपलक्ष्य में गुणवान्‌ ब्राह्मणों को देना चाहा था। चाणक्य ने 
इसके लिए विश्वावसु प्रभृति तीन भाइयों को भेजा था कि चन्द्रगुप्त से दान रूप 
आभूषण लेकर मेरे पास उपस्थित हो । इनके द्वारा ही बे आभूषण राक्षस को बेच 
दिये गये। इस प्रकार पर्वतक द्वारा धारित आभरण राक्षस के पास पहुँच जाते हैं 
जिन्हें आगे चलकर राक्षस को पहने देख मलयकेतु को यह संदेह हो जाता है कि 
हमारे पिता को इसी राक्षस ने मरवाया है। 

उधर राक्षस को धोखे में डालने के लिए चाणक्य चन्द्रगुप्त से क्ृतक कलह 
कर लेता है। चन्द्रगुप्त राजा होने पर पाटलिपुत्र में 'कौमुदी महोत्सव” मनाना 
चाहता है, ताकि पाटलिपुत्र की खिन्‍न और उद्विग्न प्रजा आनन्द मनाये। चाणक्य 
उसका निषेध कर देता है और वह इस कारण कि यह समय सेना की तैयारी और 
दुर्गों का संस्कार करने का है, आनन्द मनाने का नहीं, क्योंकि राक्षत और मलय- 
केतु मिलकर किसी भी समय पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर सकते हैं। वस्तुत: यह 
बनावटी झगड़ा था, जिसे राक्षतत आदि वास्तविक समझ बैठे थे । इससे राक्षस कं। 
अद्रदर्शिता ही सिद्ध होती है । 

अनेक राज कार्यो की चिन्ता से राक्षस को नीद नहीं आती और उसके प्र 
में वेदना उत्पन्त हो गयी है। उसे देखने के लिए मलयकेतु भागुरायण के साथ 
आता है और आते हुए भागुरायण, जो चाणक्य का विश्वस्त व्यक्ति है, उसे ऐसा 
कुछ सुझाता है, जिससे राक्षस के प्रति उसके अन्दर अविश्वास का भाव उत्पन्त हो 
जाता है। धीरे-घीरे यह भाव दृढ़ होता जाता है। इसी बीच बिता सोचे-विचारे 


42 बिशाखदत्त 


मलयकैतु पाठलिपृत्र पर आक्रमण करने का प्रस्ताव: रखता है; लेकिन राक्षस इसे 
शुभ मुह॒र्ते में करने के लिए क्षपणक जीवसिद्धि से उचित समय जानना चाहता है। 

चाणक्य की कार्यसिद्धि के लिए सिद्धार्थक शकठदास्त द्वारा लिखित कपट 
लेख और अलंकरणपेटिका को लेकर पाटलिपुत्र की ओर चल देता है। मार्ग में 
क्षपणक मे उसकी बड़ी रोचक बातचीत होती है। सिद्धा्थंक अपने को राक्षस 
का निकटस्थ व्यक्ति बताकर बिना भागुरायण से मलयकेतु कटक से निष्क्रमण 
की मुद्रा लिए हुए जाता चाहता है और गुल्माधिकारियों द्वारा पकड़कर 
भागुरायण और मलयकेतु के सम्मुख उपस्थित किया जाता है। उधर क्षपणक 
निर्गमन-मुद्रा प्राप्त करने के लिए भागूरायण के पास जाता है और बातचीत के 
बीच यह कहता है कि राक्षस ने हमारे ही द्वारा विषकन्या के प्रयोग से पर्वंतक 
को मरवाया है। इसी कुकृत्य के कारण पाटलिपुत्र से हमारा निष्कासन हुआ था 
और अब राक्षस हमसे ऐसे अकार्य करवाना चाहता है, ताकि मेरा इस संसार से ही 
निष्कासन हो जाय | इस बात को मलयकेतु सुन लेता है ओर क्षपणक का कार्य 
सिद्ध हो जाता है । तभी वह कहता है--अये, श्रुतं मलयकेतु हतकेन । हन्त 
कृतार्थोस्मि' (पु० 23) । 

सिद्धाथंक जिस लेख को लिए हुए जा रहा था, वह लेख छीव कर पढ़ा 
जाता है, लेकित मलयकेतु की समझ में नहीं आता कि यह कैसा लेख है; क्योंकि 
उसमें किसी व्यक्ति का नाम नहीं है और न यही बताया गया है कि वह लेख 
कहाँ से किसके पास भेजा जा रहा है। इसकी जानकारी के लिए सिद्धार्थंक को 
मारा जाता है तो उसकी कक्ष से आभरणपेटिका गिर पड़ती है। जिस प्रकार 
कपट लेख अमात्य राक्षस के नाम वाली मुद्रा से मुद्रित था, उसी प्रकार इस 
पेटिका में भी मोहर लगी हुई थी। उसे खोलकर देखा गया तो उसमें वही 
आशभूषण पाये गये, जो मलयकेतु ने अपने शरीर से उतार कर राक्षस को पहनते 
के लिए भेजे थे । इन्हीं आभूषणों को राक्षस ने सिद्धार्थक को पारितोषिक रूप में 
दिया था | सिद्धार्थक इन आभृषणों के विषय में भी कुछ नहीं बताता तो भासुरक 
द्वारा पुनः मारा जाता है; तब वह यह रहस्योद्घाटन करता है कि राक्षस ने 
हमें इस लेखे के साथ चन्द्रगुप्त के पाप्त भेजा है और कुछ मौखिक सन्देश भी दिया 
है जो इस प्रकार है--ये जो चित्रवर्मा आदि पाँच राजा हैं, उनमें से प्रथम तीन 
मलयकेतु के राज्य को चाहते हैं और शेप दो उसकी हस्तिसेता को । आपने चाणक्य 
का निराकरण करके हमे प्रसत्त किया है और अब आशा है कि इन राजाओं का 
भी अर्थ सम्पादित होगा, जिसके विषय में हमने कहा है। कपठलेख को पढ़कर 
और इस मौखिक सन्देश को सुनकर मलयकेतु को पूरा विश्वास हो जाता है कि 
राक्षस ने चन्द्रगुप्त के साथ कुछ गुप्त मन्त्रणा की है और वह मन्त्रि-पद के लिए 
चन्द्रगुप्त से चुपचाप मिलकर हमें मरवा देता चाहता है, तभी उसने सिद्धार्थक 


मुद्राराक्ष्र : इतिवृत्त और ख्ोत 43 


द्वारा भेंट रूप में इन आभूषणों को भेजा है । अत: निश्चित ही यह लेख चरूवगुप्त को 
श्लेजा गया है। 

मलयकेतु राक्षस को बुलवात़ा है। वह अनलंकृत होकर कुमार मलयकेतु 
का दर्शन नहीं करना चाहता; अतः विक्रेताओं से जो तीन आभूषण खरीदे गये 
थे, उनमें से एक पहन कर मलयकेतु से मिलने चल देता है। सिद्धार्थक के सामने 
उससे बातचीत की जाती है और अपने को निर्दोष सिद्ध करते के कि वह लाख 
प्रयत्न करता है लेकित दोषमुक्त नही हो पाता, क्योंकि लेख और आभरणपेटिका 
सभी पर उसकी अँगूठी की मोहर है। राक्षत्ष जिस आभूषण को पहने है, उसे 
प्रतिहारी पहचान लेती है कि यह पव॑तक के द्वारा पूर्वंधारित आभूषण है। राक्षस 
चाणक्य की चाल में फेस जाता है। उसे बचने का कोई उपाय नहीं सूझता और 
अन्त में उसे कहना पड़ता है--'हन्त रिपुभिर्म हृदयमपि स्वीकृतम” (पृ 256) । 

मलयकेतु अपनी मूर्खतावश चित्रवर्मा आदि तीन राजाओं को गहरे गड्ढे 
खुदवाकर गड़वा देता है और दो को हाथी के पैरों से कुचलवा देता है। अन्त में वह 
राक्षस का भी परित्याग कर देता है। अपने नेत्रों के सामने चित्रवर्मा आदि राजाओं 
की नृशंसतापूर्ण मृत्यु को देखकर सेना व्याकुल हो उठती है।इस असमीक्ष्य- 
कारी दुराचार को देखकर शेष राजा अपने-अपने राज्यों की ओर प्रस्थात कर देते 
हैं और तभी उस कोलाहल के बीच भद्रभटादि चाणक्य के लोग मलयकेतु को पकड़ 
लेते हैं । 

मलयकेतु से परित्यक्त होकर राक्षस अपने मित्र चत्दतदास को बचाने के 
लिए एकाकी चल देता है और पाठलिपुत्र के निकट आकर एक जीर्णोद्यान में 
छिपकर चन्दनदास का वृत्तान्त जानना चाहता है। यहाँ उसे एक पुरुष दिखायी 
पड़ता है, जो अपने गले में रस्सी बाँधकर आत्महत्या करना चाहता है। राक्षत 
अपने ही समान उसे भी दुःखी जानकर उसके आत्मघात करने का कारण 
जानना चाहता है तो वह राक्षस से कहता है कि यहाँ पाटलिपुत्र में एक मणिकार 
श्रेष्ी विष्णुदास (अथवा जिष्णुदास) रहता है, वह हमारा प्रिय मित्र है। 
वह अपना सारा गृहवैभव देकर अग्नि में प्रवेश करने के लिए नगर से बाहर 
निकल गया है । अपने मित्र के विषय में अश्वोतव्य को सुनूं, उसके पहले 
मैं अपने आपको वॉधकर मर जाना चाहता हूँ । राक्षस विष्णुदास के अग्नि में 
अविष्ट होने कारण पूछता है, तो वह कहता है कि विष्णुदास का मित्र 
चन्दसदास है। उसने अपने घर में राक्षस के पृत्र-कलत्र को छिपाकर रखा था। 
इस अपराध में उसे बन्धनागार में डाल दिया गया था और अब उससे राक्षस के 
गृहजन को देने के लिए वार-बार कहा जाता है; लेकिन वह मित्र-स्नेहवश 
उन्हें नहीं समरपित करता। इससे चाणक्य ने प्राणदण्ड का विधान करवाया है 
और चाण्डाल उसे वध्यस्थान की ओर ले जा रहे हैं। चन्दनदास को मृत्यु के 


रब विशाखदत्त 


पूर्व विष्णुदास भी अग्नि में प्रविष्ठ होकर मर जाना चाहता है। इस दुःखद 
समाचार को सुनकर राक्षस व्यधित हो उठता है और विष्णुदास को अग्नि में 
प्रविष्ट होने से रोकने के लिए कहता है और कहता हैनके मैं इस खड़्ग से 
चन्दनदास की रक्षा करूँगा | इस पर वह पुरुष कहता है कि इससे तो चन्दनदास 
का वध और शीघ्र हो जाएगा; क्‍योंकि एक वार सिद्धा्थंक नाम का व्यक्ति 
घातकों की असावधानी से शकटदास को वध्यस्थान के छुड़ाकर ले गया था। 
इस प्रमादवश चाणक्य ने घातकों को मरवा दिया। तब से जब घातक लोग 
वध्यस्थान के निकट किसी व्यक्ति को शस्त्रपाणि देखते हैं, तो मार्ग में ही उसका 
वध कर देते हैं। अन्ततोगत्वा राक्षस बिता शस्त्र के ही चन्दनदास को मुक्त करने 
के लिए चल देता है। वस्तुतः वह रज्जुहस्त पुरुष भी चाणक्य का ही व्यक्ति था, 
जो उदुम्बर नामक चरद्वारा राक्षस के विषय में बताये जाने पर चाणक्य द्वारा 
भेजा गया था। 

सिद्धाथक और उसका मित्र समिद्धार्थक चाण्डाल का वेश धारण करके 
चन्दनदास को वध्यस्थान की ओर ले जाते हैं। बीच में चन्द्दास और उसकी 
पत्नी तथा पुत्र की बातचीत से बड़ा ही करुण दुश्य उपस्थित होता है। जब 
'पत्नी छाती पीटती हुईं रक्षा के लिए लोगों को पुकारती है, तो राक्षस सहसा 
उपस्थित होता है और कहता है, 'हे शूलायतन पुरुषों! हमारे गले में इस 
वध्यमाला को डालो! । चाणक्य को इस बात की सूचना दी जाती है और वह 
घटनास्थल पर उपस्थित होकर राक्षस के सामने यह निवेदन करता है कि 
चन्दनदास के प्राणों की रक्षा तभी हो सकती है, जब वह चन्द्रगुप्त का मन्‍्त्री 
बनना स्वीकार करे । राक्षस के सामने अब कोई विकल्प नहीं रहता है। अपने 
मित्र के प्राणों की रक्षा के लिए वह चन्द्रगुप्त का मन्त्री बनना स्वीकार करता 
है| उसके कहने पर मलयकेतु भी छोड़ दिया जाता है और भद्रभठ उसे उसके 
राज्य में प्रतिष्ठित कर लौट आते हैं। चन्दनदास पृथ्वी के सभी नगरों के श्रेष्ठिपद 
पर प्रतिष्ठित किया जाता है और अन्त में पूर्णप्रतिज्ञ होकर चाणक्य अपनी शिखा 
बाँधता है। इस प्रकार इस नाटक की सुखान्त परिणति हो जाती है। 


इतिवृत्त के स्नोत 

संस्कृत के नाटककार अपने-अपने नाटकों का कथानक प्राय: रामायण 
महाभारत, पुराण और बृह॒त्कथा आदि से लेते रहे हैं। रामायण और महाभारत 
की भाँति गुणाढ्य की 'वहत्कथा' भी कभी जन-जीवन में व्याप्त थी और उसकी 
कथाएँ मानव-समाज में सर्वत्र प्रचलित थीं। ऐसी सर्वाधिक प्रचलित कथाओं में 
वत्सराज उदयन और वासवदत्ता की प्रणय कथा है, जिसे भास ने 'स्वप्नवासवदत्तम्‌! 
और प'पप्रतिज्ञायौगन्धरायण्‌' में तथा श्रीहर्ष ने 'रत्नावली' और प्रियदर्शिका' 


मुदाराक्षस ; इतिवृत्त और स्रोत 45 


नाटिकाओं में अपनाया । चाणक्य द्वारा नन्‍्दों के विताश और चदन्द्रगुप्त के सिहा- 
सनारोहण की कथा, जो आज जन-मानस में समायी हुई है, उसका भी मूलस्रोत 
बुहत्कथा' ही है। धनञ्जय ने तो नादुयस्तु को रामायण और बृह॒त्कथा आदि से 
लेने का निर्देश भी किया है-- 


इत्पाच्यशेप मिह वस्तुविभेदजातं 

रामायणादि च विभाव्य बृहत्कथां च। 
आसूत्रयेत्तदनुनेतृ रसा नुगुण्या- 

चिचत्रां कथामुचितचारुवच :प्रपञ्चे: ॥ दशहूपक /68 


हमारे नाटककार विशाखदत्त ने भी मुद्राराक्षत के राजनैतिक कथानक को 
बृहत्कथा ही से लिया है। धनज्जय के छोटे भाई धनिक ने दशरूपावलोक में 
'बह॒त्कथामूल मुद्राराक्षसम्‌' (उपर्युक्त श्लोक की वृत्ति) कहकर इसी बात की 
पुष्टि की है । गुणाद॒य की बृह॒त्कथा पैशाची प्राकृंत में थी, और हे के समय तक 
उपलब्ध थी । इस तथ्य की ओर संकेत बाण ने 'कादम्बरी' में 'निबद्धेयमतिद्दयी- 
कथा” और हषषेचरित' में 'हरलीलेव नो कस्य विस्मयाय बृहत्कथा” कहकर किया 
है | विशाखदत्त बाण से प्राचीन हैं, ऐसा कुछ लोगों का मत है, तो उन्होंने निश्चित 
ही अपने नाठकीय कथानक को बृहंत्कथा से लिया होगा, जो उस समय अपने 
मूलरूप में उपलब्ध रही होगी । दुःख का विषय है कि वह आज पैशाची प्राकह्ृत में 
नहीं मिलती, जो कभी लोकभाषा रही होगी । आजकल उसके दो संस्कृत रूपान्तर 
उपलब्ध हैं--एक है क्षेमेन्द्र की 'बृहत्कया और दूसरा है सोमदेव का 
'कथासरित्सागर' । बृहत्कथामठ्जरी में नाटकीय कथानक को मूलरूप में इस 
प्रकार दिखाया गया है--- 


चाणक्पानाम्ना तेनाथ शकटठाजगृहे रहः । 
कृत्यां विधाय सहसा सपुत्रों निहतो नृपः ॥ 


योगतन्देयश: शेषे पू्वेतन्दसुतस्ततः ॥ 
चन्द्रभुप्त: कृतो राजा चाणक्येत महौजसा ।।१ (2/26) 


'कथासरित्लागर' के प्रथम लम्बक के पव्न्चम तरंग में भी यह कथा दी हुई है, 


. कथामुख, बलोक 20 
2. प्रथम उच्छवाप्त श्लोक 7 
3. दशरूपक ]/68 को वृत्ति में उद्धत । 


46 विशाखदत्त 


जो संक्षेपत: इस प्रकार है--- 

पाटलिपुत्र में योगनन्द नामक राजा राज्य करता था। वह काम, क्रोध और 
लोभ आदि के वशीभ्रुत होकर गजेन्द्र के समान उन्मत्त हो गया था। उसने 
मू्खंतावश अपने मन्त्री शकटाल को उसके सौपुत्रों के साथ अन्धकूप में डलवा 
दिया था । शकटाल के सभी पुत्र उस अन्धकूप में क्षुधा से पीड़ित होकर मर गये, 
केवल श़कटाल ही जीवित बचा। येन केन प्रकारेण बररुचि के. प्रार्थना करने 
पर वह अन्धक्प से निकाला गया और उसे पुनः मत्त्रिपद दिया गया; लेकिन 
वह अपने पुत्रों के निधन के दु:ख को भुला नहीं पाया था क्योंकि उसने अपनी 
आँखों के सामने अपने क्षुधाग्रस्त पुत्रों को तड़प-तड़पकर मरते देखा था । 
अतः वह योगननद से बदला लेने का उपाय सोचा करता था। एक दिन उसने 
देखा कि एक ब्राह्मण मार्ग में भूमि खोद रहा है। कारण पूछने पर उस ब्राह्मण 
ने बताया कि मैं कुशों का उन्मूलन कर रहा हूँ; क्‍यों इन्होंने मेरे पैरों 
में चुभ कर ब्रण कर दिया है। शकटाल ने उस ब्राह्मण को अपने कार्य के 
लिए उपयुक्त समझा और उसे राजा नन्द के यहाँ त्रयोदशी तिथि को श्राद्ध में 
भोजन करने के लिए आमन्त्रित किया और उसे एक लाख स्वर्णमुद्राएं दक्षिणारूप 
में देने का लालच दिया। फिर शकटाल उसे अपने घर ले गया। यह क्नाह्मण 
चाणक्य था। श्राद्ध के दिन शकटाल उसे राजा के पास ले गया और राजा 
के द्वारा स्वीकार किए जाने पर उसे सर्वोच्च आसन पर बिठाया। लेकिन 
सुबन्धु नामक ब्राह्मण उस आसन पर बैठना चाहता था। शकटाल ने इस कलह 
के विषय में राजा से कहा तो उसने सुबन्धु को उस भासन पर बैठने की आज्ञा 
दी | चाणक्य इस अपमान को नहीं सह सका और उसने सभी के सामने क्रोध से 
प्रज्ज्वलित होकर शिखा खोलकर यह प्रतिज्ञा की कि सात दिनों के अन्दर जब मैं 
राजा नन्द को मार डालूँगा, तभी अपनी शिखा बाँघूँगा। ऐसा कहकर और 
राजा नन्द के कुपित होने पर वह वहाँ से चला गया; लेकित शकटाल ने उसे अपने 
घर में शरण दी। यहाँ चाणक्य एकान्त में कृत्या की साधना करने लगा, जिसके 
प्रभाव से योगनन्द दाहज्वर से सातवें दिन मर गया। राजः के मरने पर शकटाल ने 
चन्द्रगुप्त को राजपद पर अभिषिक्त किया और बुद्धि में वृहस्पत्ति के समान चाणक्य 
को उसका मन्त्री बताया; पुनः अपने पुत्रों के शोक से दुखी और विरक्त होकर 
वह वन में चला गया । 

'कथासरित्सागर' की इस कथा और मुद्राराक्षस की कथावस्तु में बहुत कुछ 
साम्य है । कथासरित्सागर में नन्द के निन्‍यानवे करोड़ स्वर्णमुद्राओं के स्वामी होने 
का उल्लेख है--नवाधिकाया नवते: कोटीनामधिपो हि सः” (/4/95)। इसी 
बात को विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के साथ कृतक कलह के प्रसंग में इस प्रकार 


मुद्राराक्षत : इतिवृत्त और स्रोत 47 


कहा है-- 


केनानयेनाव लिप्ता नवनवतिशतद्वव्यकोटी श्वरास्ते 
नन्‍्दा: पर्यायभूता: पशव इव हता: पश्यतो राक्षसस्थ ।। (3/27) 


इसी प्रकार ननन्‍्द द्वारा चाणक्य को उच्चाप्तन से हटठाये जामे और उसके 
कुपित होकर प्रतिज्ञा करके तन्दवंश का उन्मूलन कर चद्वगुप्त को राजा बनाने 
की जो घटना है, उसका भी उल्लेख मुद्राराक्षस के इन श्लोकों में किया गया 


शोचन्तोध्वनतैर्न राधिषभयाद्‌ धिक्शब्दगर्भे्मृखै-- 


ममिग्रासनतोज्वक्ृष्टमवर्श ये दुृष्टवन्त: पुरा । 

ते पश्यन्ति तथैव सम्प्रति जना नन्‍दं सया सान्‍्वयं॑ 

सिहेनेवः गजेन्द्रमेंद्रिशिखरात्सिहासनात्पातितम्‌ ॥। (/4 2) 
८ हि > 

क्ृतागा: कौटिल्यो भुजग इव निर्याय नगरा-- 


झाथा ननदान्‌ हत्वा नृपतिमकरोन्मौयवृषलम्‌ । 
तथाहूं मौयेंन्दो: श्रियमपहरामीति कृतिधी: 
प्रकर्ष मद्बुद्धे रतिशयितुमेष व्यवसितः ॥ (3/]) 


इत विवरणों से स्पष्ट है कि विशाखदत्त के नाटकीय कथानक का मुख्य स्नोत 
बृहत्कथा' है, यद्यपि चाणक्य द्वारा नवनन्दों के विनाश और चद्वगुप्त के 
राज्यारोहण की कथा पुराणों में भी वरणित है| श्रीमद्भागवत में जहाँ कलियुग के 
राजाओं का वर्णन है, वहाँ यह घटना भी वणित की गयी है--- 


नव नन्दात्‌ द्विज: कश्चित्‌ प्रपच्नानुद्धरिष्यति। 
तेषामभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यन्ति वै कलौ ॥ 
स एव चन्द्रगुप्तं वै द्विजो राज्येडइभिषेक्ष्यति । (42/// 2-3 ) 


इस कथन से पूर्णतः साम्य रखने वाला 'विष्णुपुराण” का यह सन्दर्भ है--- 
ततश्च नव चेतानू नन्‍्दान्‌ कौटिल्यो ब्राह्मणास्ममुद्धरिष्यति। तेषामभावे 
मौर्या: पृथिवीं भोक्ष्यन्ति | कौटिल्य एवं चद्दरगुप्तमुत्पन्तं राज्येइभिषेक्षयति ॥/ 


(4/24/26-28) 


48 विशाखदत्त 


वायुपुराण में इस कथानक की चर्चा इस रूप में है-- 


महापद्मस्य पर्याये भविष्यन्ति नृपा: क्रमातृ । 
उद्धरिष्यति तान्‌ सर्वान्‌ कौटिल्यो वै द्विरष्ट्रभि:। 

भुक्‍त्वा महीं वर्षशतं नन्देन्दु: सा भविष्यति । 

चन्द्रगुप्त तृप॑ राज्ये कौटिल्य: स्थापयिष्यति । 

चतुरविशत्समा राजा चन्द्रगुप्तो भविष्यति ॥ (99/329-3 ) 


विज्ञाखदत्त पुराणों के भी ज्ञाता थे । बृहत्कथा के साथ-साथ उन्होंने हो सकता 
है पुराणों के इन सन्दर्भो को भी पढ़ा हो । अर्थशास्त्र और कामन्दकीय नीतिसार के 
तो वह विशेष मर्मज्ञ ही थे। इन सब ग्रन्थों का अनुशीलन कर और उनसे मूल 
कथानक को लेकर उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा उसे अद्भुत रूप में प्रस्तुत 
किया है। 


विदश्ञाखदत्त काबि और नाटककार 


कविनरूप 


विशाखदत्त एक महात्‌ नाटककार के साथ-साथ लोकोत्तर वर्णन में निपुण 
एक कवि भी हैं। अतः इस अद्भुत संविधानवाले नाटक में उनका कवि-हुदय 
स्थान-स्थान पर अभिव्यक्त हुआ दिखायी पड़ता है । उदाहरण के रूप में यह श्लोक 
देख सकते हैं--- 


आस्वादितद्विरदशो णितशो णशोभां 

सन्ध्यारुणामिव कलां शशल[ञछतस्य । 
जृम्भाविदारितमुखस्य॒ मुखात्स्फुरन्तीं 

को ह॒र्तुंमिच्छति हरे: परिभूय दंष्ट्राम्‌ ॥ श्लोक 8, प्रथमांक 


यहाँ चाणक्य कहता है कि मेरे रहते भला ऐसा कौन है जो चन्द्रगुप्त कौ 
राजलक्ष्मी को छीन सकता है । उसको छीनना उतना ही दुष्कर है, जितना दुष्कर 
प्िह को पराभूत कर उसके दाँत उखाड़ना है और वह सिंह भी साधारण नहीं 
है; अपितु अभी-अभी हाथी को मार कर उसने उसका रकक्‍त-पान किया है, 
जिससे उसके दाँत लाल हो गये हैं। जमुहाई लेने से उसका फैला मुख इस प्रकार 
चमक रहा है, जैसे सन्ध्या समय उदीयमान चन्द्रमा की अरुण वर्ण कला हो। इस 
इलोक का प्रत्येक पाद एक विशिष्ट अर्थ की अभिव्यञ्जना करता है। प्रथम पाद 
से यह ध्वनि निकलती है कि जैसे कोई सिंह भीषण युद्ध के पश्चात्‌ हाथी को 
भारे तो तुरन्त उसका क्रोध शान्त नहीं होता, उसी प्रकार चाणक्य ने अभी शीक्र 
ही नव नन्‍्दों का विनाश किया है, अत: उसका भी क्रोध शान्त नहीं हुआ है। 
द्वितीय पाद से यह व्यक्त होता है कि जैसे उदीयमान चन्द्र की कला अभिनव, 


50 विशाखदत्त 


लोकाह्लादकारी एवं सतत्‌ वर्धिष्णु होती है ; उसी प्रकार चन्द्रगुप्त की राजलक्ष्मी 
भी नवीत, प्रजा को आनन्द प्रदान करनेवाली तथा भविष्य में निरन्तर वृद्धि 
को प्राप्त होनेवाली है। पुनः तृतीय पाद से यह अभिव्यक्ति होती है कि जैसे 
कोई सिंह हाथी को मारकर उसका रक्‍त-पान कर सोने के उपक्रम में जमुहाई तो 
ले, लेकिन सहसा सोये नही, उसी प्रकार चाणक्य ने नन्‍्दों को मारकर उनका 
राज्य चन्द्रगुप्त को सौंप दिया है, लेकिन वह आराम से सोया नहीं है. अपितु परि- 
स्थितियों के प्रति सतत्‌ जागरूक है। इस भाव का द्योतन वह आगे चलकर इन 
शब्दों द्वारा करता है-- तन्मयाप्पस्मिन वस्तुति न शयानेव स्थीयते। यथाशक्ति 
क्रियते तदग्रहणं प्रति यत्न:' (पृ० 67) । अन्त में, चतुर्थ पाद से चन्द्रगुप्त की राज- 
लक्ष्मी का दुरुद्ध रत्व व्यज्जित होता है। भाव यह है कि सिंह की वाढ़ को उखाड़ना 
जितना दुष्कर है, उतना ही दुष्कर चन्द्रगुप्त की राजलक्ष्मी को छीनना है। यह 
एक श्लोक ही विशाखदत्त की कवित्वशक्ति का परिचायक है | इसमें नाठकीयता 
भले न दिखायी दे ; लेकिन उत्कृष्ट कवित्व अवश्य ही विद्यमाव दिखायी देता है। 
ऐसा व्यंग्याथेबो धक श्लोक संस्क्षत के श्रेष्ठ कवियों की कृतियों में भी आसानी से 
देखने को नही मिलेगा । इतना ही नहीं, रस की भी दृष्टि से इस श्लोक का महत्त्व 
है | यहाँ वीररस में सञ्चरण करते हुए अमषख्य सम्चारी भाव की सुन्दर 
व्यव्जना हुई है । 

इसी प्रकार 'श्यामीक्ृत्याननेन्दूनरियुवतिदिशां संततैः शोकधूमै:” (-व) 
'शने: श्थानीभुताः सित्तजलघरच्छेदपुलिना:' (3/7) इत्यादि श्लोक रूपकानु-- 
प्राणित उपमालंकार के सुन्दर निदर्शेन हैं। आकाशं काशपुृष्पच्छविमभिभवता 
भरस्मना शुक्लयन्ती' (3/20) इस श्लोक में उपमा की छटा दर्शनीय है। इसी 
भाँति 'गुभ्न॑ राबद्धचक्रम' (3/28) इस श्लोक में 'गृप्न॑ रेवधूमे:' ऐसा अर्थ करने 
से छपकालंकार की हथता दर्शनीय है। इसके साथ ही रस की दृष्टि से इसमें 
वीभत्स रस की भी चर्वणा होती है। श्वसन्तः शाखातां ब्रणमिव निबध्तन्ति 
फणिन:' (6/2) तथा वृक्षा: श्मशानमुपरगन्तुमिव प्रवृत्ता: (6/3) यहाँ 
उत्प्रेक्षा अलंकार की घोजना कितनी सुन्दर हुईं है, यह देखते ही बनता है इसी 
अंक में एक ऐसा इलोक है, जिसके प्रत्येक पाद में उपमालंकार की छठा दिखाई 
पड़ती है। इलोक यह है--- 


विपर्यस्तं सौध॑ कुलमिव महारम्भरचनं 

सर: शुष्क साधोह दयमिव नाशेन सुहृदाम्‌ । 
फर्लहीना वृक्षा विभुणनुपयोगादिव नया--- 
स्तृणैश्छन्ता भूमिर्मतिरिव कुनी तैरविदृष: (6-) 


विशाखदत्त---कवि और नाटककार 5] 


मलयकेतु से परित्यक्त राक्षस चन्दनदास का वृत्तान्त जानने के लिए पाट- 
लिपुतत की उपकण्ठभूमि में स्थित जीर्णोद्यान में जब प्रवेश करता है, तो उस 
उद्यान की नष्ठप्रायः सुन्दरता उसे किस रूप में दिखाई पड़तीं है, उसी का यहाँ 
वर्णन है। इस उद्यान में उत्कृष्ट शिल्पकला से बनाया गया प्रासाद उसी प्रकार 
विनष्ट हो गया, जैसे धर्मादि पुरुषार्थो का सेवन करने वाले महान्‌ लोगों द्वारा 
स्थापित बंश नष्ट हो जाता है। इसमें स्थित सरोबर मित्रों के विनाश से सज्जन 
व्यक्ति के हृदय की भाँति सूख गया। इसके वृक्ष भी फलों से रहित हैं, जैसे गुण- 
हीन राजा को पाकर नीति निष्फल हो जाती है। इसकी भूमि तृणों से उत्ती 
प्रकार आच्छादित है, जिस प्रकार मूर्ख व्यक्ति की बुद्धि कुनीतियों से आच्छत्त 
हो जाती है। इस प्रकार प्रत्येक पाद में शोभायमान उपमा का दर्शन शायद ही 
अन्यत्र देखने को मिले । एक के बाद एक राक्षस के मुख से निकले हुए ये श्लोक 
उसकी मानसिक वेदना के परिचायक हैं। विशाखत्त ने निरन्तर विफलता से 
आहत राक्षस के मनोभावों का यहाँ बड़ा ही सुन्दर निरूपण किया है। यह शसंग 
ही अत्यन्त कारुणिक है और विशाखदत्त के रसाक्षिप्त वित्त की अनुभूति कराता 
है । 

इसी छठे अंक में चाणक्य की नीति पर रज्जु का आरोप कर जो साडग 
रहूपक निरूपित किया गया है, उसकी भी शोभा इस पद्म में दर्शनीय है-- 


षड़्गुणसंयोगदुढा उपायपरिपाटी घटितपाशमुखी । 
चाणक्यनीतिरज्जू रिपुसंयमनोद्यता जयति ॥ (6-4) 


इसका भाव यह है--चाणक्य की नीति रूपी रज्जु (रस्सी), जो शत्रु को 
बाँधने में उच्यत है, उसकी जय हो । जैसे रस्सी छह लड़ियों से बतायी जाने पर 
बड़ी सुदृढ़ होती है, उसी प्रकार चाणक्य की नीति भी सन्धि, विग्नह, यात, 
आसन, द्वैघीभाव और आश्रय इन णशुणों से युक्त होते के कारण अत्यन्त सुदृढ़ 
है। नीतिरूपी रस्सी साम-दान-दण्ड भेद इन उपायों से बने हुए पाशरूपी 
मुखवाली है। इस प्रकार यहा समस्तवस्तुविषयक रूपक की बड़ी सुन्दर योजना 
हुई है । 

एक अन्य पद्य में शरत्‌ (ऋतु) को रतिकथा में चतुर दूती के सामन वर्णित 
किया गया है। चन्द्रगुप्त सुगाइग प्रासाद से स्वच्छसलिला गंगा को प्रवहमान 
देखता है, तो वह एक मानिती नायिका की भाँति दिखायी पड़ती है, जिसे एक चतुर 
दूती के समान शरत्‌ उसके प्रियतम समुद्र से मिलाने ले जा रही है । गंगा के रूठने 
का कारण है--वर्षाकाल में समुद्र का बहुवललभ होना | जैसे किसी नायिका का 
यति अनेक वल्लभाओं का संग करने से उसके कोप का भाजन होता है । वह उससे 


52 विशाखदत्त 


रूठती है, लेकिन प्रणयकथा में चतुर दूती उसे समझा-बुझा कर ठीक रास्ते पर 
लाती है और उसे प्रसन्‍त कर पति से मिलाने ले जाती है, उसी प्रकार शरत्‌ भी 
गंगा को सताकर समुद्र से मिलाने ले जा रही है। वर्षाकाल में अनेक छोटी-बड़ी 
नदियाँ समुद्र में जा मिलती हैं । यही समुद्र का बहुवल्‍्लभत्व है, क्योंकि समुद्र को 
नदियों का पति कहा कहा गया है। अनेक सरिताओं के साथ समुद्र का समागम 
देख गंगा उससे कुपित हो जाती है। वर्षकाल का बढ़ा हुआ मलिन जल उसके 
कालुष्य का सूचक है और शरत्‌कालिक स्वच्छ जल उसकी प्रसन्नता का । शरद 
ऋतु में गंगा की धारा संकुचित हो जाती है, यह नायिका के कृशत्व का सूचक है। 
पति से रूठी हुई नायिका जैसे क्शकाय हो जाती है, वही हाल गंगा का शरदुऋतु में 
है । उस कृशीभूत स्वच्छ सलिला अर्थात्‌ प्रसन्‍न गंगा को दूती शरत्‌ उसके प्रियतम 
समुद्र से मिलाने ले जा रही है। ये भाव निम्न श्लोक में व्यक्त किये गये हैं, जो 
विशाखदत्त के कविहृदय के परिचायक हैं-- 


भर्तुस्तथा कलुषितां बहुवल्‍्लभस्य 

मार्गे कथं चिदवतार्य तनूभवन्तीम्‌ । 

सर्वात्मना रतिकथाचतुरेव दूती 

गंगां शरन्तयति सिन्धुप्ति प्रसन्‍ताम्‌ ॥ (3-9) 


इस इलोक में जहाँ यह कहा गया है कि चाणक्य का तेज सूर्य के तेज से भी 
बढ़कर है, वहाँ व्यत्तिरेकालंकार का दर्शेन होता है। इसी प्रकार का वर्णन 
यो नन्‍्द मौय॑नृपयो: परिभूय लोकम्‌” (3-0) में भी है। इसके अतिरिक्त मुद्रा- 
राक्षम्त में श्लेष, अर्थान्तरन्यास, अप्रस्तुतप्रशंसा तथा समासोक्ति अलंकारों की 
भी चारुता यत्र-तत्र दर्शनीय है। कहीं-कहीं बिता किसी अलंकार के विशाखदत्त 
के वर्णन इतने सजीव हैं कि उनके प्रति सहृदय व्यक्ति सहसा भाक्ृष्ट हो जाता 
है। पंचम अंक (एलोक 23) में वह गौडाडूगनाओं के सौन्दर्य के प्रति आक्रृष्ट 
होकर कहते हैं कि वे अपने सुन्दर कपोलों में लोध्रपुष्प के पराग का लेप करती हैं 
और उनके काले और घँघराले केश भौरों की भी कालिमा को तिरस्क्ृत कर देते 


हैँ >न्प्न्त 


गौडीनां लोध्रधूलीपरिमलबहुलान्धूमयन्तः कपोलान्‌ 
क्लिश्नन्तः कृष्णमान॑ भ्रमरकुलरुच: कुध्न्चितस्यालकस्य ॥। 


इस प्रकार का वर्णन एक सहृदय कवि ही कर सकता है। उनके पद्मों में ही 
नहीं, अपितु गद्य में भी काव्यात्मकता दर्शनीय है। द्वितीय अंक में वैरोचक के 


विशाखदत्त---कवि और नाटककार 53 


राज्याभिषेक के पश्चात्‌ उसको वश्त्रालंकारों से सुसज्जित करने का कितना मनो- 
मुखकारी वर्णन दीघेसमासयुक्त पदावली हारा किया है-- 
क्रताभिषेके किल वैरोचके, विमलमुक्तामणिपरिक्षेपविरचित चित्र- 
पटमयवारबाणप्रच्छादितशरी रे मणिमयमुकुटनिविडनियमितरुचि रतर- 
मौलौ सुरभिकुसुमदामवेक्ष्यावभासितविपुलवक्ष: स्थले'''देवस्थ नन्दस्य 
भवनं प्रविशति वेरोचके' (पू०।28)॥ 
इसी प्रकार तृतीय अंक में दीघंसमासयुक्त वाक्य की चारुता दर्शनीय है, जो 
कड्चुकी द्वारा उक्त है--- 
आये, प्रणतसंभ्रमोच्चलितभूमिपालमौलिमालामाणिक्यशकलशिखा- 
पिशड्गीकृतपादपद्मयुगल: सुगृहीतनामधेयो देवश्चन्द्रगुप्त आर्य शिरसा 
प्रणम्य विज्ञापपति--अकृतत क्रियान्तरायमार्य द्रष्ट्रमिच्छासि ।” (पृ० 60) 
अर्थात्‌ नतशिर और सम्प्रम में उठे हुए राजाओं के मस्तकों पर बंधे 
मुकठों में जड़े हुए माणिक्य-खण्डों की किरणों से पीत्त रक्त होते रहते हैं दोनों 
चरण-कमल जिसके, ऐसा प्रात: स्मरणीय नामवाला चन्द्रगुप्त आपको शिर से 
प्रणाम कर निवेदत करता है कि यदि आपके कार्यों में कोई विध्व न हो तो मैं 
आपको देखना चाहता हूँ । 
नाटककार के द्वारा प्रयुक्त गद्यांशों में भी काव्यात्मक चारुता दर्शनीय है। 
वह किसी घटना-विशेष का वर्णन करते हुए कितना सजीव चित्र प्रस्तुत करता है, 
यह निपुणक नामक चर की इस उकौित में देखा जाता है, जहाँ वह चन्दनदास के 
घर में रह रही राक्षस की पत्नी की अँगुली से विगलित अंगुलिमुद्रा का रोचक 
वर्णन. करता है, जो लुढ़कती हुई उसके पास आकर उसी प्रकार रुक जाती है, 
जैसे कोई नववधू ससुर तथा गुरुनन आदि को प्रणाम करके चुपचाप खड़ी हो 
जाती है-- 
ततश्च एकस्मादपव रकात्पञ्चवर्षदेशीय:  प्रियदर्शेतीयशरीराक्ृति: 
कुमार को बालत्वसुलभकौतूहलोत्फुल्लनयनों निष्क्रमितुं प्रवृत्त:। ततो हा 
निर्गंतो हा निर्गेत इति शड्क्रापरिग्रहनिवेदयिता तस्वैबापवरकस्याभ्यन्तरे 
स्त्रीजनस्योत्यितो महान्‌ कलकल: । तत ईषदढ्वारदेशदापितसुख्या एकया 
स्त्रिया स कुमारको निष्क्रामन्तेव निर्भत्स्यावलम्बित: कोमलया बाहुलतया । 
तस्पा: कुमारसरोधसम्पश्रमप्रचलिताइःगुले: करातू पुरुषाडगुलिपरिणाह- 
प्रमाणघटिता विगलितेयमड्स्‍गुलिमुद्विका देहली वन्ध्रेपतिता उत्यविता वया 
अनवबुद्धव मम चरणपारश्व समागत्य प्रणामनिभुता कुलवधूरिव निश्चला 
संवृत्ता (पू० 79-80) 
यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि इस नाटक में इतने बड़ें-बड़ें संवाद होने पर 
भी वे अरुचि-उत्पादक नहीं होते । इन बड़े संवादों में भी वर्णन इतना सजीव और 


54 विशाखदत्त 


कौतूहलवधक है कि श्रोता उसे सुनकर कभी उद्दिग्न नहीं होता । यह विशाखदत्त 
के काव्यात्मक वर्णन का सुन्दर निदर्शन है । 


नाटककार-रूप 


विशाखदत्त एक अच्छे कवि होने के साथ-साथ कुशल नाठककार भी हैं । 
इस नाटक का सर्वाधिक वैशिष्ट्य इस बात में है कि इसमें आदि से अन्त तक 
विस्मय का भाव बना रहता है। यद्यपि धनज्जय ने निर्वेहण सन्धि में अद्भुत रस 
की योजना करने का विधान बताया है-#ह#कुर्यान्निर्वहणेडद्भूतम्‌ (दशरूपक 
3-33); लेकिन दुंढिराज तो इसमें सर्वेत्र ही अद्भुत रस का विलास बताते हैं 
(कर्तेंद नाटकस्याद्भुतरसविलसत्संविधानप्रवीण:) । इसमें वह सभी विशेषताएँ 
पायी जाती हैं, जो एक नाठक में होनी चाहिए । सभी नाटकों की भाँति इसका भी 
प्रारम्भ तान्‍्दी-पद्मयों से और अवसान भरतवाक्य से होता है। इसके नान्दी-पच्य 
मांगलिक होते हुए भी वस्तुनिर्देशात्मक हैं। उत्से किन-कित्त अर्थो की व्यल्जना 
होती है, इसकी चर्चा टीकाकार ढुंढिराज ने की है। नान्‍दी के पश्चात्‌ सूत्रधार 
रंगमञठच पर आता है और नटी से बातचीत करता है। इसे आमुख या प्रस्तावना 
कहते हैं, जैसा कि धतञ्जपय ने कहा है--- 


सुत्रधारों नटीं ब्रूते मारिषं वा विदूषकम्‌ । 
स्वकार्य प्रस्तुताक्षेपि चित्रोक्‍त्या यत्त दामुखम्‌ ॥। 
प्रस्तावना वा'** 5१९ हेड ॥ (दशरूपक 3-7-8) 


सन्धि-सन्ध्यंग-पोजना 


सूत्रधार और नटी के जाने के पश्चात्‌ वस्तुत: नाटक का प्रारम्भ होता है। 
सम्पूर्ण नाटकीय इतिवृत्त पाँच सन्धियों में विभक्‍त किया जाता है।ये सन्धियाँ 
हैं--मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वेहण। ये पाँचों सन्धियाँ एक-एक अर्थ- 
प्रकृति और अवस्था के योग से बनती है। अर्थप्रकृतिरया पाँच हैँ --बीज, बिन्दु, 
पताका, प्रकरी और कार्य तथा अवस्थाएँ भी पाँच हैं---आरम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, 
नियताप्ति और फलागम | विशाखदत्त ने अपने नाटक में इन पाँचों सन्धियों की 
बड़े सुन्दर ढंग से योजना की है। प्रथम अंक में जहाँ चाणक्य नितुणक नाम के चर से 
कहता है--भद्र, श्रुतम्‌ । अपसर न चिरादस्य परिश्रमस्पानुरूपं फलमधिगमिष्यसि। 
(१० 8) और चर--थयदार्य आज्ञापयति' कहकर निकल जाता है, वहाँ मुख 
सन्धि समाप्त होती है और प्रतिमुख सन्धि प्रारम्भ होती है जो अंक के 
साथ ही समाप्त हो जाती है । तत्पश्चात्‌ सम्पूर्ण दूसरे अंक में गर्भ सन्धि 
की ओर तीसरे तथा चौथे अंक में विमर्श-सन्धि की योजना की गयी है। 


विशाखदत्त---कवि और नाटककार 55 
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते नाटकीय इतिवृत्त इतना विस्तृत हो जाता है कि उसका 
उपसंहार करने में विशाखदत्त को तीन अंकों (5, 6, 7) की रचना करनी पड़ती है। 

नाटक में इन पाँचों सन्धियों में 64 सन्ध्यंग होते हैँ। विशाखदत्त ने अपनी 
ताट्यकृति में इन सबका समायोजन किया है, यह दुंढिराज की दीका से स्पष्ट हो 
जाता है; क्योंकि उन्होंने सभी अंगों का यथास्थान निर्देश किया है। इससे विशाख- 
दत्त के नाट्य-कौशल का सहज अनुमान हो जाता है। 


अंक-विभाजन 


विशाखदत्त ने अपने नाटक का विभाजन अंकों में किया हैं । नाटक 
में प्रायः पाँच से सात अंक देखे जाते हैं। कालिदास का 'मालविकारितिमित्र 
नाटक पाँच अंकों का है और “विक्रमोवशीय' भी पाँच अंकों का है, यद्यपि उसके 
कथानक के दिव्यमानुषसंश्रित होने से उसे त्रोटक भी कहा जाता है। भास के 
'स्वप्नवासवदत्त”र और 'अभिषेक' छः-छ: अंकों के नाटक हैं तथा “अभिज्ञान- 
शाकुन्तल' 'महाबी रचरित' 'उत्तररामचरित' और 'वेणीसंहार'-- ये सब सात अंकों 
के नाटक हैं। विशाखदत्त का 'मुद्राराक्षस' भी सात अंकों का नाठक है। दस अंकों 
के प्रायः प्रकरण देखे जाते हैं, जैसे शूद्रक का 'मृच्छकटिक' और भवशभूति का 
“मालतीमाधव । प्राय: अच्छे नाटक सात अंकों के ही पाये जाते हैं। इस दृष्टि से 
मुद्राराक्षस' की भी गणना अच्छे नाटकों में की जानी चाहिए । 

विशाखदत्त ते इस नाटक में किस प्रकार अंकों की योंजना की है, उससे 
उनके नाट्यरचना-कौशल पर प्रकाश पड़ता है। इन अंकों की योजना प्रायः 
पक्ष-विपक्ष क्रम से की गयी है। प्रथम अंक का घटना-चक्र चाणक्य से सम्बद्ध है 
तो दूसरे का प्रतिपक्षीय राक्षस से सम्बद्ध । पुन: तृतीय में चाणक्य और चद्धगुप्त 
का मुख्य रूपये संवाद है तो चतुथ में।राक्षक और मलयकेतु का। पञ्चम में 
दोनों पक्षों के मिले-जुले पात्र हैं। उदाहरणत: एक ओर चाणक्यपक्षीय क्षपणक 
जीवसिद्धि, सिद्धार्थेंक और भागुरायण हैं तो दूसरी ओर राक्षस और मलयकेतु। 
षष्ठ में मुख्यतः संवाद रज्जुहस्त पुरुष, जों चाणक्य का व्यक्ति है और राक्षस के 
बीच में होता है। अन्त में, सप्तम अंक में दोनों पक्षों के प्रधान, अप्रधान सभी 
पात्र रंगमञच पर उपस्थित होते हैं और नाटक की सुखान्त परिणति हो जाती है। 


घटना-स्थल 
विशाखदत्त ने दर्शकों के अन्त:करण में उत्सुकता उत्पन्न करने के लिए अंकों 


का भी विभाजन दुश्यों में किया है। नाटक में घटित घटनाओं को विविध दृश्यों में 
दिखाने से दर्शकों का मन कभी उद्विग्न नहीं होता, अपितु नवीन-नवीन दृश्यों को. 


56 विशाखदत्त 


देखने का कुतृहल बढ़ता जाता है। नाटक के प्रत्येक अंक में जो दृश्य उपस्थित किये 
गये हैं, वे इस प्र कार हैं--- 


अंक | 
दृश्य एक--पाटलिपुत्र में चाणक्य का गृह । 
अंक 2 
दृश्य एक--मलयकेतु के राज्य में राक्षस के घर की ओर जाने वाला मार्ग । 
दृश्य दो--राक्षस का गह । 
अंक 3 
दृश्य एक--पाट लिपुत्र में चन्द्रगुप्त का सुगाहुग-प्रासाद । 


दृश्य दो---चाणक्य का गृह । 
दृश्य तीन--वही, जैसा कि दृश्य एक में है। 


अंक 4 
दृश्य एक--वही, जैसा कि द्वितोय अंक का दृश्य एक है। 
दृश्य दो--जैसा कि द्वितीय अंक दृश्य दो है । 
अंक 5 
दुश्य एक--मलयकेतु का स्कन्धावार | 
दृश्य दो--वहीं एक आस्थान मण्डप । 


दृश्य तीन---उसी स्कन्धावार में राक्षस का निवास-स्थान । 
दृध्य चार--बही, जैसा कि दृश्य दो है। 


अंक 6 

दुश्य एक--पाटलिपुत्र का एक मार्ग । 

दृश्य दो--पाटलिपुत्र की उपकण्ठभूमि में जीर्णोद्यान । 
अंक 7 

दृश्य एक--पाटलिपुत्र में वध्यस्थान | 

दृश्य दो--पाटलिपुत्र का राजप्रासाद । 


इन दृश्यों को देखने से पता चलता है कि नाटकीय कार्यजात के मुख्यतः 


विशाखदत्त---कवि और नाटकाकर 57 


तीन घटना-स्थल हैं--पराटलिपुत्र, मलयकेतु की राजधानी और पाटबिपुत्र के 
निकट मलयकेतु का स्कन्धावा र । इस प्रकार घटनास्थलों की योजना कर विशाखदत्त 
मे वह नाट्यरचना-कौशल दिखाया है, जिसे यूनानी लेखकों ने यूनिटी आँव प्लेस' 
(0770 07 92828) कहा है । 


घटनाओं का काल-नि्णय 


घनञ्जय ने दशरूपक में अंक का लक्षण करते हुए कहा है कि इसमें एक दिन 
की घटनाएँ वणित होनी चाहिए और उन्हें एक ही प्रयोजन से सम्बद्ध होता 
चाहिए। इसके साथ ही इसमें नायक का भी नैकट्य बना रहना चाहिए; तीन या 
चार पात्र होने चाहिए और अन्त में उनका निर्गमन दिखलाना चाहिए--- 

एकाहाच रितैकार्थ मित्यमासन्‍्तनायकम्‌ । 
पात्रैस्त्रिचतु रैरडःक॑ तेषामन्तेउस्यतिय मः ।। (3/36) 

विचार करने पर यह लक्षण उस तथ्य की ओर इंगित करता है, जिसे यूनानी 
नाट्यविदों ने यूनिटी ऑब टाइम' (ए५9 णी ४८) कहा है। इससे प्रतीत॑ 
होता है कि यूनानी लेखकों ने ऐसा कहकर किसी नवीन तथ्य पर प्रकाश नही डाला 
है । समय की एकता या एकरूपता का ध्यान हमारे यहाँ के ताट्यशास्त्रियों ने भी 
रखा है। 

प्रथम अंक में निपुणक नाम का चर चाणक्य के पास आता है, उससे चाणक्य 
की बातचीत होती है, चाणक्य सिद्धार्थक के द्वारा कपट-लेख लिखवाता है और 
अंगुलि मुद्रा के साथ उसे सिद्धार्थक को दे देता है; पछ्िद्धार्थक वध्यस्थात से शकटदास 
को छुड़ाकर ले जाता है और योजनाबद्ध रीति से भागुरायण-भद्र-भट आदि भी 
भागकर मलयकेतु के पास चले जाते हैं।ये सभी घटनाएँ एक ही दिन की 
हैं । 

दूसरे अंक में पाठलिपुत्र का वृत्तान्त निवेदित करने आहितुण्डिकश में 
विराधगुप्त आता है; उघर सिद्धाथंक शकटदास के लेकर उपस्थित होता है और 
राक्षस एक विक्रेता से तीन आभूषण खरीदता है, यह भी सब एक ही दिन का 
कार्यजात है । 

तीसरे अंक में घटना-चक्र पाटलिपुत्र में घटित होता है। इसमें जो चाणक्य 
और चन्द्रगुप्त का कृतक कलह दिखाया गया है, वह एक ही दिन की घटना है । 

चौथे अंक में राक्षत की करभक और शंकटदास से बातचीत होती है और 
उधर मलयकेतु और भागुरायण उससे मिलने आते हैं। यह सब कुछ एक ही दिन 
में होता है। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि अंक के प्रारम्भ में राक्षस को 
शयनगत दिखाया गया है, जो प्रात:काल सोकर उठा है और अन्त में सूर्यास्त का 
वर्णन है (अये, अस्ताभिलाबी भगवानूभास्कर: पृष्ठ 25) । 


58 विशाखदत्त 


पाँचवें अंक में मलयकेतु के कटक में घटनाएँ घटित होती हैं। इसमें गुल्मा- 
घिकारियों द्वारा संयत सिद्धार्थक भागुरायण के सम्मुख उपस्थित किया जाता 
है और उसके साथ भागुरायण की बातचीत होती है । मलयकेतु भी वहीं विद्यमान 
है। अन्त में राक्षम बुलाया जाता है ओर उसकी भी इन लोगों से बातचीत होती 
है। यह भी एक दिन का छूत्य है। 

छठे अंक में मलयकैतु द्वारा परित्यक्त राक्षस चन्दनदास का वृत्तान्त जानने के 
लिए पाटलिपुत्र के निकट स्थित जीर्णबान में आता है और उसकी रज्जुह॒स्त पुरुष 
से बातचीत होती है। यह भी सब एक ही दिल में होता है। 

अन्त में, सातवें अंक में वध्यस्थान का दृश्य है, जिसमें चन्दनदास, उसका पुत्र 
और पत्नी, राक्षस, चाणक्य आदि अनेक पात्रों को उपस्थित किया गया है। राक्षस 

चन्द्रगुप्त का मन्‍्त्री बनता स्वीकार करता है और चाणक्य अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर 

शिखा बाँधता है। यह सब घटनाक्रम एक ही दिन में घटित होता है। नाटक के 
अन्त में सभी पात्रों का निर्गंमन भी होता है । सारी घटनाएँ एक ही मुख्य प्रयोजन 
से सम्बद्ध हैं। अत: इस प्रकार अंक का जो लक्षण दिया गया है, उसका पूरी तरह 
से निर्वाह विशाखदत्त ने अपने नाठक में किया है। 

मुद्राराक्षस में घटित होने वाली घटनाओं का कोई निश्चित दिन नहीं दिया 
गया है। हाँ, तीन स्थल ऐसे हैं, जहाँ एक निश्चित तिथि का अनुमान होता है। 
प्रथम अंक में चन्द्रग्हण की चर्चा है, जो पूर्णिमा को ही होता है; लेकिन यह किस 
मास की पूर्णिमा है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। तीसरे अंक में 
कोमुदी महोत्सव मनाने का उल्लेख है, जो कार्तिकी पूर्णिमा को मनाया जाता था। 
अतः इस नाटक में सर्वाधिक निश्चित तिथि यही है। पुनः चौथे अंक के अंत में 
“पोर्णमासी” का उल्लेख है। उस दिन सेना के प्रस्थान का मुह निरूपित करते हुए 
क्षपणक कहता है--श्रावक, निरूपिता मया5धमध्याह्वान्तिवृत्तसब्ंकल्याणा तिथि: 
सम्पूर्णचन्द्रा पौ्णंमासी' (_० 2]-]]) | आगे भी इसी तिथि की ओर संकेत 
करते हुए वह कहता है--अस्ताभिमुखे सूर्य उदिते सम्पुर्णमण्डले चन्द्र 
(पृ० 2]2) । 

टीकाकार ढुंढिराज ने इसे मार्गशीर्ष की पूर्णिमा बताया है और यह ठीक भी 
है; क्योंकि तीसरे अंक में घटित घटना से इस अंक की धटनाओं में एक मास का 
अन्तर होना चाहिए । दूसरे अंक में राक्षस ने विराधगुप्त को पुनः पाटलिपुत्र भेजा 
था और कहा था कि तुम वैतालिक स्तनकलश से कह देना कि जब-जब अवसर 
आये, वह चन्द्रगुप्त को चाणक्य के विरुद्ध समुत्तेजक इलोकों से उद्दीप्त करता रहे 
और कोई गुप्त संदेश हो तो उसे करभक द्वारा प्रेषित करे | वह करभक पाटलिपूत्र 
से मलयकेतु के राज्य में जहाँ राक्षस रह रहा है, आता है । दोनों स्थानों 


विशाखदत्त---कवि और नाटककार 59 


के बीच की दूरी सौ योजन है, जैसा कि करभक की इस उक्त से ज्ञात 
होता है--- 


योजनशतं समधिकं को नाम गतागतमिह करोति । 
अस्थानगमनगुर्वी प्रभोराज्ञा यदि न भवति ।। (4/) 


प्रो. ध्रूव ने ऐसा ही पाठ माना है, जबकि तेलंग 'योजनशर्तं समधिकम्‌' के 
स्थान पर “राजनियोगो महीयान्‌” ऐसा पाठ स्वीकार करते हैं। यदि ध्रुव का 
पाठ ठीक है तो करभक द्वारा इतनी दूरी तय करने और सेना की तैयारी 
करते में एक महीने का समय लग सकता है। अत: ढुंढिराज ने ठीक ही चौथे 
अंक की पूर्णिमा को अगहन की पूणिमा बताया है। इसी अंक में मलयकेतु कहता 
है कि मेरे पिता को मरे हुए दस्त महीने हो गये हैं (अच्य दशमी मासस्तातस्योप- 
रतस्य, पृ० 90) । इससे यह स्पष्ट होता है कि अगहन से दस माह पहले अर्थात्‌ 
फाल्गुन के महीने में पर्वेतक का वध हुआ होगा, जिसकी चर्चा पहले और दूसरे 
अंक में है। प्रथम अंक में जिस चन्द्रग्रहूण का उल्लेख है, वह्‌ फाल्गुनी पूणिमा का 
है। इसके पूर्व जो कुछ घटित हुआ है अर्थात्‌ नन्द द्वारा चाणक्य का अपमानित 
होना, चन्द्रगुप्त और पर्व॑ंतक की सम्मिलित सेनाओं द्वारा पाटलिपुत्र पर बहुत 
दिनों तक घेरा पड़ा रहना, सर्वार्थसिद्धि का सुरंगमार्ग से तपोवल चला जाना 
और वहाँ भी चाणक्य द्वारा उप्ते मरवा देता, इन सव धटनाओं में लगभग चार 
महीने का समय लग सकता है। अतः चाणक्य के अपमान की घटना 
कारतिकी पूर्णिमा को हुई होगी। चौथे अक में वर्णित पौर्णमासी अगहन की 
पूर्णिमा है । उसके पश्चात्‌ सेना प्रस्थान करती है और पाठलिपुत्र के निकट 
पहुँचती है । यह सब कुछ होने में एक माह का समय लग सकता है । तदनन्तर 
छठे और सातवें अंक की घटतायें तो एक दिन की हैं। पाँचवें अंक के अंत में 
मलयकेतु द्वारा राक्षस त्याग दिया जाता है। वह पाटलिपुत्र के निकट 
जीर्पोद्यान में आता है। उधर सिद्धार्थक मलयकेतु-कटक की घटनाओं को 
बताने पाटलिपुत्र आता है। वह चाणक्य से मिलकर पुत्र: अपने मित्र 
समिद्धार्थक से मिलता हैऔर दोनों चाण्डाल-वेश धारण कर चन्दनदास को 
वध्यस्थान ले जाते हैं) वहाँ उसको मुक्त कराने के लिए राक्षस भी पहुँचता 
है । उसे हताश होकर चद्धगुप्त का सचिव पद स्वीकार करना पड़ता है।ये 
सारी घटनाएँ दो-चार दिनों से अधिक समय की नहीं हो सकतीं। अतः इसे 
पौष मास की पौर्णमासी मानना चाहिए। इस प्रकार चाणक्य के अपमान की 
घटना से उसे पूर्णप्रतिज्ञ होकर शिखा-बन्धन की घटना तक चौदह मास का 
समय लगा होगा । इस अवधि के दौरान घटित घटनाओं को विशाखदत्त ने 


60 | विशाखदत्त 


बड़ी सुन्दरता से वणित किया है। यह उनकी उत्कृष्ट नाद्य-कला का परिचायक 


है । 


घटनाओं का एक प्रयोजन से अन्वित होना 


मुद्राराक्षम में जिन घटनाओं की योजना की गयी है, वे सब एक मुख्य 
प्रयोजन से अन्वित हैं और वह प्रयोजन है राक्षस का निग्रह। चाणक्य के जितने 
भी व्यक्ति हैं, वे सभी लक्ष्य-प्राप्ति के प्रति सतत जागरूक हैं। इन पात्रों की 
विशेषता यह है कि ये कष्ट सहकर भी चाणक्य के कार्य को सम्पादित करते हैं। 
चाणक्य का मित्र इन्दुशर्मा नामक ब्राह्मण क्षपणक के वेश में घूमता-फिरता है। 
निपुणक नाम का चर यमपट लिए पाटलिपूत्र में घूमता है। सिद्धार्थक, भागुरायण 
भद्रभट आदि सभी लोग चाणक्य का अभीष्ट सम्पादन करने के लिए प्रयत्नशील 
हैं। भागुरायण तो मलयकेतु का इतना प्रिय हो गया है कि वह उसे अपने से एक 
क्षण के लिए भी दूर रखना नहीं चाहता । ऐसा स्नेहवान्‌ कुमार मलयकेतु भी उसके 
द्वारा छला जाता है, यह आत्मग्लानि उसके चित्त को सर्देव व्यधित करती है है। 
वह कहता है-- 
'भद्र भासुरक, न मां दूरी भवन्तमिच्छति कुमार:। अतोर्श* मन्तवा- 
स्थानमण्डपे न्‍्यस्यतामासनम्‌ । 
कष्टमेवमस्मासु स्नेहवान्‌ कुमारों मलयक्रेतुरतिसन्धातव्य इत्यहो 
दृष्कर म्‌ ।! (पृ० 224) 
सिद्धार्थक चाणक्य का अत्यन्त विश्वस्त व्यक्ति है । चाणक्य राक्षस की अंगुलि- 
मुद्रा के साथ कपटलेख, कार्यान्वयन के लिए उसे दे देता है। राक्षस का विश्वास- 
पात्र बनने के लिए वह शकटदास को वध्यस्थान से छुडा कर ले जाता है। रहस्यो- 
दूघाटन न करने पर भासुरक द्वारा ताड़ित भी किया जाता है और चाणक्य के 
ही कार्ये की सिद्धि के लिए उसे चाण्डाल भी बनना पड़ता है। वह अपने मित्र 
समिद्धार्थक को भी चाण्डाल बनने के लिए कहता है, ताकि दोनों लोग चन्दत्दास 
को वध्यस्थान मारने के लिए ले जाएँ | चाणक्य के इस आदेश से उसे बड़ा मान- 
सिक कष्ट होता है, जिसे वह इन शब्दों में व्यस्त करता है-- 
किमायँचा णक्यस्य घातकजनोष्न्यो नास्ति येन वयमीदुशेषु नियोजिता 
अतिनृशंसपु | (पृ० 268-69) 
इस पर सिद्धार्थक चाणक्य के कठोर आज्ञा-नियोग का स्मरण कराते हुए 
कहता है कि इस लोक में भला कौन ऐसा व्यक्ति है, जो जीने की कामना करता 
हुआ चाणक्य की आज्ञा का उल्लंघन करे | 
'वयस्य, को जीवलोके जीवितुकाम आर्य चाणक्यस्याज्ञप्ति प्रति 


विशाखदत्त--कति और नाटककार 6 


कूलयति। तदेहि। चाण्डालवेषधारिणौ भूत्वा चन्दनदासं वध्यस्थानं 
नयावः । (पृ० 269) 
इन साधारण पात्रों की तो बात ही क्‍या, स्वयं चन्धगुप्त को चाणक्य के 
आदेशानुसार ही कृतक कलह करना पड़ता है, जिसका उसे अत्यन्त क्षोभ है। वह 
अपनी आत्मग्लानि को इस प्रकार व्यक्त करता है-- 


आर्याज्ञयैव मम लड्घितगौरवस्य 

बुद्धि: प्रवेप्टुमिव भूविवरे प्रवृत्ता । 

ये सत्यमेव हि गुरूततिपातयन्ति 

तेषां कथ नु हृदयं न भिनत्ति लज्जा ॥ (3/33) 


इस प्रकार नाटककार ने जितनी भी घटनाओं की योजना की है, उनका 
परयंवसान राक्षसनिग्रह रूपी कर्म में है। चाणक्य के व्यक्रित एक-दूसरे को भी नहीं 
जानते कि हम लोग चाणक्य के ही व्यक्त हैं, लेकित वे सभी चाणक्य के परम 
प्रयोजन की सिद्धि के लिए सर्देव तत्पर रहते हैं। चाणक्य ने जो कुछ किया है, वह 
इसीलिए कि जैसे भी हो राक्षस का चन्द्रगुप्त के साथ संयोग हो जाए। वह राक्षस 
से कहता है-- 


भृत्या भद्रभटादय: स च तथा लेख: सिद्धार्थक-- 
स्तच्चालडकरणत्रयं स भवतो मित्र भदन्‍्तः किल। 
जीणेदिनगत: स चापि पुरुष: क्लेश: स च श्रेष्ठिन : 

सर्व मे वृषलस्य वीर भवता संयोगमिच्छोनेय: ।। (7/9) 


इस प्रकार नाटकार ने सभी घटनाओं को प्रयत्नपुर्वेक एक प्रयोजन से अन्वित 
किया है। इसे ही यूनानी लेखकों ने 'यूनिटी ऑफ एक्शन" (ए्रा॥ ए 0००) 
कहा है । 


प्रवेशक 


नाटक में नोरस और अनुचित कथांश, जिन्हें रंगमठच पर दिखाना समीचीन 
न हो, उन्हें पाँच अर्थोपक्षेपकों द्वारा सूचित किया जाता है । वे हैं''* 
विष्कम्भ, प्रवेशक, चूलिका, अंकास्य और अंकावतार । मुद्राराक्षस में इनमें 
से प्रवेशक द्वारा दो स्थलों पर भूत और भविष्यत्‌ इतिवृत्तांशों को सूचित किया 
गया है। दशरूपककार धतव्जय ने विष्कम्भ और प्रवेशक की परिभाषा इस प्रकार 
की है--- 


62 विशाखदत्त 


वृत्तततिष्यमाणानां कथांशानां निदर्शक: । 
संक्षेपार्थस्तु विष्कम्भों मध्यपात्रप्रयोजितः ।। 


तदुवदेवानुदात्तोक्त्या नीचपान्नप्रयोजितः । 
प्रवेशो5हकद् य सस्‍्थान्त: शेषार्थस्योपसूचक: ॥ (/59,60) 


अर्थात्‌ बीते हुए और आगे आनेवाले कथांजों को संक्षेपत्तः जहां भध्यम- 
कोटि के पात्रों द्वारा सूचित किया जाता है, वहाँ विष्कम्भ होता है और उसी प्रकार 
के (भूत और भविष्यत्‌) कथा-प्रसंगों को जब नीच पात्रों द्वारा अनुदात्त उक्‍क्तियों 
से सूचित किया जाता है, तब प्रवेशक होता है। यह दो अंकों के बीच ही में होता 
है। अतः पहले अंक में इसका प्रयोग नहीं हो सकता । वहाँ विष्कम्भ का प्रयोग 
हीता है। मुद्राराक्षस में विशाखदत्त ने पाँचवें और 5ठे अंकों के प्रारम्भ में 
प्रवेशकों की योजना की है | पाँचवें अंक के प्रवेशक में सिद्धार्थंक और क्षपणक की 
बातचीत है और छठे अंक के प्रवेशक में सिद्धाथंक और समिद्धाथंक का परस्पर 
वर्तालाप है। 


स्वगत कथन और आकाशभाषित 


नाटकीय वस्तु का एक दृष्टि से त्रिधा विभाजन किया जाता है--सर्वेश्राव्य, 
नियतश्चाव्य और अश्ाव्य अर्थात्‌ सबके सुनने योग्य, कुछ निश्चित लोगों के द्वारा 
सुनने योग्य और किसी के भी द्वारा न सुनने योग्य । जो वस्तु किसी के सुनने योग्य 
नहीं होती, उप्ते ही 'स्वगत कथत' कहते हैं। विशाखदत्त ने इसकी भी योजना 
मुद्रा राक्षस में प्राय: प्रत्येक अंक में की है। ये स्वगत कथन मुख्यतः प्रथमांक में 
चाणक्य के, द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ और सप्तम में राक्षस के, तृतीय में चन्द्रगुप्त के 
और पज्चम में मलयकेतु, भागुरायण और राक्षस के हैं। इन स्वगत कथनों से भी 
अरुचि नहीं उत्पन्न होती, अपितु वे कथानक के पूरक होने से श्रोता की जिज्ञासा 
का उपशमत ही करते हैं । 

इसी प्रकार नाटक में 'आकाश भाषित' को भी अपनाया जाता है। इसमें एक 
ही पात्र एक अन्य पात्र की कल्पना कर लेता है और आकाश की ओर देखकर उस 
काल्पनिक पाज्न से बात करता हुआ कहता है--क्‍्या कहते हो ? और फिर उसके 
उत्तर में अपनी बात करता है। इस प्रकार दो पात्रों के स्थान पर एक ही पात्र 
के द्वारा कार्य-सम्पादन किया जाता है। धनञ्जय ने इत्तका लक्षण इस प्रकार दिया 


है--- 


विशाखदत्त---कवि और नाटककार 63 


कि ब्वीष्येवमित्यादि बिता पातं ब्रवीति यत्‌ । 
श्रत्वेवानुक्तमप्येकस्तत्स्यादाका शभाषितम्‌ । (दशरूपक, /67) 


“मुद्राराक्षस' में इसे दो स्थलों पर दिखाया गया हुँ--द्वितीय अंक के प्रारंभ में 
आहितुण्डिक द्वारा और तृतीय अंक के प्रारम्भ में कछचुकी द्वारा । 

इस प्रकार कोई ऐसा विशेष नाद्यतत्त्व नहीं, जिसकी योजना विशाखदत्त ने 
अपने नाटक में न की हो। इस विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि विशाखदत्त 
एक महान्‌ कवि के साथ-ही-साथ कुशल नाटककार भी हैं। उतके उभप स्वरूप का 
दर्शन 'मुद्राराक्षस' में होता है। 


मुद्राराक्षत का नाटकौय वडिष्ट्य 


वस्तु-वेशिष्द्य 

संस्कृत नादय-साहित्य में मुद्राराक्षत का एक विशिष्ट स्थान है; क्योंकि 
यही एक ऐसा नाटक है, जो पूर्णतः राजनीति-प्रधान हैं। नाटक के प्रमुख 
तत्त्वों वस्तु, नेता और रस की दृष्टि से भी यह वेशिष्ट्ययुक्त है। नाटक का 
इतिवृत्त प्रायः ऐतिहासिक होने से प्रख्यात कहलाता है। (प्रख्यातमितिहासादे:--- 
दशरूपक /5) । मुद्राराक्ष। का इतिवृत्त भी मुख्यतः बृहत्कथामूलक 
होने से ऐतिहासिक है, लेकिन विशाखदत्त ने अपनी विलक्षण नाट्य-प्रतिभा से 
इसमें बहुत कुछ उत्पाद्य अंश सम्मिलित कर दिया है। अनेक शास्त्रों और 
विशेष रूप से कौटिलीय अथंशास्त्र के गम्भीर ज्ञान के कारण विशाखदत्त 
ने इसमें ऐसी विलक्षणता ला दी है, जो अन्यन्त्र नहीं दिखाई पड़ती । 
चाणक्य और राक्षत इन दो राजनीति-निपुण मुख्य-मन्त्रियों के कूटनीति- 
पूर्ण क्रिया-कलापों से इस नाटक का विधान अति अद्भुत बन गया है। इन दोनों 
के बीच में पड़ी हुई राजलक्ष्मी को वही स्थिति है, जो दो मदोन्‍्मत्त हाथियों के 
बीच में गजवधू की होती है, जेसे वह यह्‌ निश्चय नहीं कर पाती कि किसके पास 
रहे, उसी प्रकार राजलक्ष्मी भी एक निश्चित धारणा नहीं बना पाती कि वह 
चाणव्य के साथ रहे या राक्षस के साथ। विशाखदत्त इसका वर्णन करते हुए 
कहते हैं-- 


तदेवमनयोरबुद्धिशा लियो : सुसचिवयोविरोधे संशपितेव नन्‍्दकुल लक्ष्मी: । 


विरुद्धयो भू शमिह मन्त्रिमुख्ययो-- 
संहावने वनगजयो रिवान्तरे । 
अनिश्चयाद्गजवशयेव भीतया 
गतागतैर्धुवमिह खिद्यते क्षिया ॥ (2/3) 


मुद्राराक्षस का नाटकीय वेशिष्ट्य 65 


दोनों राजनयविशारदों की कुटिल राजनैतिक चालों से इसका इतिवृत्त इतना 
जटिल हो जाता है कि उसे सुव्यवस्थित कर उपसंहृत करने में स्वयं नाटककार को 
क्लेश का अनुभव होता है। विशाखदत्त ने अपनी मन:प्थिति का परिचय इस 
एलोक-वा क्य द्वारा कराया है-- 


कर्त्ता वा नाटकातामिममनुभवति क्लेशमस्मद्वि धो वा ।(4/3) 


तायक-वैशिष्द्य 


मुद्राराक्षत का नायकगत वैशिष्ट्य भी कुछ कमर नहीं है। नाद्य-शास्त्र की 
दृष्टि से नायक को प्रख्यातवंश का होता चाहिए और रार्जषि होना चाहिए । इसके 
साथ ही उसे धीरोदात्त भी होता चाहिए । इन सब लक्षणों के आधार पर टीकाकार 
दुंढिराज ने चन्द्रगुप्त को नायक माना है और इसमें हेतु दिया है कि चन्द्रगुप्त का 
राज्य सचिवायत्तसिद्धि वाला है, अत: वह इस नाटक में अपने षौरुष का 
आविष्करण नहीं करता है-- 


सचिवायत्त पिद्धत्वात्पौरष॑ स्वमदर्शयन्‌ । 
गम्भी रात्मा चन्द्रगुप्तो धीरोदात्तो5त्र नायक: ॥ 


लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने से चन्द्रगुप्त इस नाटक का नायक नहीं 
प्रतीत होता; क्योंकि विशाखदत्त ने जैसा इसका चित्रण किया है, उससे वह 
प्रख्यात वंश का नहीं मालूम पड़ता | चाणक्य उसे प्राय: 'बृषल' शब्द से सम्बोधित 
करता है, जो शूद्व के लिए प्रयुक्त होता है । इस नाटक में लगभग 4] बार वृषल 
शब्द का प्रयोग हुआ है! और केवल एक स्थल को छोड़कर सर्वत्र चाणक्य 
उसे चन्द्रमुप्त के लिए प्रयुक्त करता है। राक्षस छठे अंक के छठे श्लोक में चन्द्रगुप्त 
को 'वुषल' कहता-और उसके हीन जातित्व की ओर संकेत करता हुआ कहता 


है--- 


पति त्यक्त्वा देव॑ भुवनपतिमुच्चे रभिजनं 
गता छिद्रेण श्रीवृंपलमविनीतेव वृषली ॥ (6/6) 


. मुद्रा, पृ० 63, 65-67, 69, 83, 40, 04, 30, 58, 60:62, 64, 67-70, 72, 
74, 75-78, 80, 88, 27. 305, 07, [2 


56 विशाखदत्त 


एक अन्य स्थल पर भी राक्षस के कथन से इसी बात की पुष्टि होती है। वह 
राजलक्ष्मी की अकुलीनता को प्रकट करते हुए कहता है-- 


अपि च अनभिजाते, 


पृथिव्यां कि दग्धा: प्रथितकुलजा भूमिपतय: 
पति पापे मौर्य यदर्ति कुलहीनं वृतवती।॥ 
प्रकृत्पा वा काशप्रभवकुसुमप्रान्तचपला 
पुरन्श्नीणां प्रज्ञा पुरुषग्ुणविज्ञानविमुखी ॥ (2/7) 


चन्द्रगुप्त का हीनजातित्व उसे मुरा दासी का पुत्र मानने के लिए विवश 
करता है, जिसे प्रायः लोग स्वीकार करते हैं। दुंढिराज, जो चन्द्रयुप्त को नायक 
मानते हैं, स्वयं उसकी अकुलीनता को रेखांकित करते हैं। उनके द्वारा विरचित 
उपोदुधात के तिम्न सन्दर्भो से चन्द्रगुप्त का मुरा दासी का पुत्र होता ही सिद्ध होता 


है--- 


राज्ञ: पत्नी सुनन्दासी ज्ज्येष्ठान्या बुषलात्मजा । 
मुराख्या सा प्रिया भर्तृ: शीललावण्यसम्पदा ।। 28 ॥। 
2६ अर >८ 

मुरा प्रासूत तनय॑ मोर्याख्यं गुणावत्तरम्‌ ॥। 32 ॥। 


एक तो चन्द्रगुप्त का अकुलीन होना उसके नायकत्व में बाधक है, दूसरे वह 
धीरोदात्त भी नहीं प्रतीत होता है, क्योंकि तीसरे अंक में, जहाँ वह सर्वप्रथम रंगमंच 
पर आता है, उसके कथन से किसी भी प्रकार धीरोदात्तत्व नहीं सुचित होता | वह 
कहता है--- 

राज्यं हि नाम, राजधर्मानुवृत्तिपरतन्त्रस्य नृपतेमेहदप्री तिस्थानम्‌ । कुतः । 


परार्थातुष्ठाने रहयति न्‌ृप॑ स्वार्थंपरता 
परित्यक्तस्वार्थों नियतमयथार्थे: क्षितिपति: 
परार्थश्चेत्स्वार्थादभिमततरो ह॒त्त परवान्‌ 
परायत्त: प्रीतेः कथमिव रस चेत्ति पुरुष: ॥।( 3/4) 


वस्तुत: नायक वह होना चाहिए, जो कथानक का आदि से अन्त तक तयन 
करे। इस दृष्टि से चन्द्रगुप्त नायक नहीं हो सकता; क्योंकि वह केवल दो अंकों 
(3 और 7) में आता है। शेष अंकों में उसका अभाव है। ढुंढिराज ने एक ओर 


मुद्राराक्षत का वाठकौय वैशिष्ट्य 67 


उसे धीरोदात्त और गंभीरात्मा कहा है और दूसरी ओर उसका राज्य सचिवा- 
यत्तसिद्धि का बताया है। यह कथन स्वयं अपने में विरोधी है; क्योंकि नादूय- 
शास्त्र के नियमों के अनुसार सचिवायत्त सिद्धि वाला नायक धीरललित होता है, 
जैसे वत्सराज उदयन । नाटक के पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि विशाखदत्त 
की दृष्टि में वस्तुत: चाणक्य ही इसका नायक है, क्योंकि वही प्रधान पात्र है। 
दूसरा प्रधान पात्र राक्षस है, जो उसका प्रतिद्वन्द्दी है। नाटक का प्रारम्भ चाणक्य 
के ही प्रवेश से होता है। सम्पूर्ण प्रथम और तृतीय अंक में उसी का वर्चस्व है और 
अन्तिम अंक में उसो की नीति फलदायिनी सिद्ध होती है और चन्द्रगुप्त को 
राजलक्मी प्राप्त होती है। यद्यपि शेष अंकों में उसकी शारीरिक उपस्थिति नहीं, 
लेकिन उसके कार्यों की चर्चा सर्वत्र होती है| स्वपक्ष और परपक्ष के सभी 
पात्र उसकी नीति के प्रति विस्मित रहते हैं। चन्द्रगुप्त और मलयकेतु दोनों राजा 
चाणक्य और राक्षस की अपेक्षा बहुत गौण हैं। इतिवृत्त का आदि से अन्त 
तक फलोन्मुख निर्वाह चाणक्य ही करता है। अतः ब्राह्मण होते हुए भी वह 
नायक कहलाने का अधिकारी है! विशाखदत्त ने नायक के लक्षणों के आधार पर 
नायक की रूप-रचना नहीं की; अपितु स्वतन्त्र रूप से नायक की सृष्टि की है 
और वह नायक चाणक्य के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। मुद्राराक्षस का 
यही नायकगत वैशिष्ट्य है। 


'रसवंशिष्ट्य 

नाटक का प्रमुख तत्त्व रस्त है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र के छठे अध्याय में 
न हिं रसादृते कश्चिदर्थ: प्रवर्तते! कहकर “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाःद्रम्त- 
निष्पत्ति:' इस रससूत्र की अवतारणा की है। इसकी व्याख्या में अभिनवगुप्त कहते 
हैं--'एक एव तावत्परमार्थतो रस: सूत्रस्थानीयत्वेन रूपके प्रतिभाति ।! इससे 
स्पष्ट है, जेसे माला में सूत्र पिरोया रहता है, उसी प्रकार रस भी नाद्य में सर्वत्र 
व्याप्त रहता है। यदि नाटक में रस-चर्वणा न हो तो कोई व्यक्ति उसे देखने के 
लिए हीं प्रवृत्त होगा । अतः वस्तु, नेता और रस इन तीन नाट्यतत्त्वों में रस का 
ही प्राधात्य सिद्ध होता है। इसकी अपेक्षा अन्य तत्त्व गौण हैं। 

इस आत्मतत्त्व रस की भी दृष्टिसे मुद्राराक्षस का वैशिष्ट्य है। प्रत्येक 
नाठक में एक अंगीरस होता है और शेष रस अंगभृत | धतञ्जय ने नाठक में वीर 
अथवा श्ूंगार इन दो में से किसी एक को अंगीरूप में समायोजित करने 
का विधान बताया है और यह भी कहा कि अन्य रसों की योजना अंगरूप में 
करनी चाहिए तथा निर्वहण सन्धि में अद्भुत रस का उपनिबन्धन करना 
चाहिए-- 


68 विश्ञाखदत्त 


एको रसो5्ड्गीकत्तंब्यो वीर: श्ंगार एवं वा । 
अंगमन्ये रसा: सर्वे कुर्याननिरव हणेडद्भुतम्‌ ॥। (दशरूपक, 3/3) 


प्राय: संस्कृत नाटकों में इन्हीं दो में एक रस अंगरीरूप में उपनिबद्ध देखा 
जाता है; हाँ, भवभूति का 'उत्तररामचरित' इसका अपवाद है, जिसमें करण रस 
अंगीरूप में प्रतिष्ठित है। कालिदास के नाटकों में श्ंगार रस प्रधान और भवश्वुति 
के महावीर चरित' और भट्ठटनारायण के 'वेणीसंहार' आदि में वीररस प्रधान है । 
विशाखदत्त का मुद्राराक्षम भी वीररस प्रधान नाठक है, जैसा कि टीकाकार 
ढुंढिराज ने भी कहा है--वीरो रसः प्रधानं स्यासन्मुद्राराक्षषनाटके ।! वीररस 
युद्धवी र, दानवी र, दयावीर और धर्मवीर---इन चार रूपों में अभिव्यक्त देखा जाता 
है | अब प्रघन यह होता है कि मुद्राराक्षस में इनमें से किस वीररस की योजना हुई 
है। विचार करने पर प्रतीत होता है कि इनमें से कोई रस मुद्राराक्षत में आयोजित 
नहीं है। इस नाठक में तो आदि से अन्त तक चाणक्य और राक्षत्त की कूटनी तियाँ 
ही प्रपथ्चित की गयी हैं; अत: मुद्राराक्षत के वबीररस ,कों 'नीतिवीर' संज्ञा 
प्रदान करती चाहिए। स्वपक्ष और परपक्ष के लोग चाणक्य की नीति के प्रति 
चकित दिखायी पड़ते हैं। चाणक्य का अत्यन्त विश्वस्त गुप्तचर सिद्धार्थंक उसकी 
नीति की सराहना इन शब्दों में करता है--- 


बुद्धिजलनिझंर: सिच्यमाना देशकालकलश: । 
दर्शथिष्यति कार्येफलं ग्रुरुक॑ चाणक्यनीतिलता ।। (5/व ) 


अर्थात्‌ बुद्धि जल जिनका निश्नेर है, ऐसे देश और कालरूपी कलशों से सीं ची 
गयी चाणक्य की नीतिलता राक्षसनिग्रहरूपी गुरफल दिखायेगी। आगे चलकर 
भागुरायण भी कहता है--- अहोवैचित््यमार्य चाणक्यनीते:' (प० 223) | छठे अंक 
के प्रारम्भ में सिद्धार्थक फिर कहता है--- 


जयति जयनकार्य यावत्कृत्वा च सर्व 
प्रतिहृतपरपक्षा आयेचाणक्यनी ति; ॥। (5/ ) 


अर्थात्‌ विजय की कारणभूत सेना आदि के द्वारा किये जानेवाले सम्पूर्ण कार्य 
को, जो स्वयं सम्पादित करके शत्र॒पक्ष को नष्ट करनेवाली है, ऐसी आय॑ चाणक्य 
की नीति की जय हो। सिद्धार्थक को वह देवगति के समान प्रतीत होती है 
(वयस्य, देवगत्या इव अश्वुतगत्ये नमश्चाणक्यनीत्यै) जैसे विधाता की गति को 
कोई नहीं जात सकता, उसी प्रकार चाणक्य के नीति-मार्ग को कोई नहीं जान 


मुद्राराक्षत का नाटकीय वैशिष्ट्य 69 


सकता । ओऔरों को जाने दीजिये, राक्षस ऐसा नीतिकुशल व्यक्ति भी चाणक्य 
की नीति के प्रति विस्मित होकर कहता है--अहो दुर्बोधश्चाणक्यबदोर्नीति- 
मार्ग: । 

नीति दो प्रकार की हौती है--धर्मनीति ओर कूटनीति। चाणक्य ने नन्‍दों का 
विनाश और राक्षस का निग्नह करने में धर्ममीति को न अपनाकर कूटनीति को 
अपनाया है, क्‍योंकि कलियुग में वह सद्य: फलदायिती होती है! इस प्रकार 
चाणक्य की कूटठतीति से व्याप्त इतिवृत्त वाला मुद्राराक्षस मुख्यतः नीतिबीररतस 
को ही व्यक्त करता है। 

अंगभूत रसों में अदभुत का प्राधान्य है। ढुंढिराज अपने उपोद्घात में इस 
श्रेष्ठ नाटक को अद्भुत रस से युक्त बताते हैं (अद्भुतरसनयं ना(टकवरम्‌, 
श्लोक 22) | शूृंगार रस का इसमें एक प्रकार से अभाव है; क्योंकि चाणक्य 
और राक्षस के कूटनीतिपूर्ण क्रियाकलापों में श्रृंगार आ भी कैसे सकता है। 
वामां बाहुलतां निवेश्य शिथिलं कण्ठे विवृत्तानना' (2/2)--यह एक श्लोक 
ऐसा है, जिसमें शंगार की झलक दिखायी पड़ती है। उसका परिपोप' कराना 
माटककार को अभीष्ट नही है; तभी इस नाटक में कोई वायिका भी नहीं है। 
चन्दनदास की पत्नी को छोड़कर कोई दूसरा स्त्री पात्र नहीं है । उसकी अपने 
प्रियतम के साथ हुईंबातचीत में शंगार की अभिव्यक्ति नहीं होती; अपितु 
कर्ण की होती है; क्योंकि उसे चन्दनदास से बातचीत करते हुए वहाँ दिखाया 
गया है, जहाँ उसका पति चाण्डालों द्वारा वध्यस्थान की ओर ले जाया जाता 
हैं । चाण्डालों की इस उक्ति आयैचन्दवदास, निखातः शूलस्तत्सज्जों भव 
को सुनकर वह रक्षा के लिए पुकारती है और छाती पीटती है। उधर उसका 
शिशुपुत्र उससे पूछता हैं, पिता जी आपके न रहने पर हम क्या करेंगे (तात, 
'किमिदानीं मया तातविरहितेनातनुष्ठातब्यम्‌') इस पर वह कहता है--पुत्र, 
चाणक्यविरहिते देशे वस्तव्यम्‌'--भर्थात्‌ तुम वहाँ रहना जहाँ चाणक्य का वास न 


हो। 


इस प्रकार, चन्दनदास के साथ उसकी पत्नी औरपूुत्न के वार्तलाप में 
नाटककार ने करुणरस को अभिव्यक्त किया है। करुणरस की ऐसी सुन्दर व्यज्जना 
बहुत कम देखने को मिलती है। इस नाठक में हास्यरस का भी कोई स्थान नहीं है; 
इसलिए इसमें विदूषक भी नहीं है। वैसे हास्यरस प्राय: खूंगार रस धान नाटकों 
में देखा जाता है; क्योंकि श्रृंगार से उसकी उत्पत्ति माती गयी है, जैसा कि 
भरतमुनि ने कहा है--शधाराद्धि भवेद्धास्यः (नाद्यशास्त्र 6/44 )। इस नाठक में 
अंगभूत रसों में रौद्र और वीभत्स को यथास्थान समायोजित किया ग्रया है। रौद्र 


का स्थायीभाव क्रोध होता है । 
चाणक्य क्रोध का मूर्तिमान्‌ रूप है। अत: रौद्रशस की अभिव्ययक्ति होना 


70 विशाखदत्त 


स्वाभाविक ही है। इसके अतिरिक्त '“ग्रधैराबद्धचक्र वियति विचलितैदीघ॑नि- 
एकम्पपक्ष:' (3/28) इस श्लोक में वीभत्स रस का आस्वाद होता है, क्‍योंकि इसमें 
श्मशानभृमि का बड़ा ही सुन्दर चित्र खींचा गया है--- 


नन्देरानन्दयन्त: पितृवननिलयान्‌ प्राणिनः पश्य चेता-- 
न्निर्वान्त्यद्यापि नैते सल््‌ तबहलवसावाहिनो हव्यवाहाः ।। 


इस प्रकार नाठक में रस-योजना बड़ी विचित्र हुई है! अतः रस की दृष्टि से 
भी इसी नाटक का वैशिष्ट्य कुछ कम नहीं है। 

इन ग्रुण-गणों से युक्त यह नाटक संस्कृत के श्रेष्ठ नाठकों की पंक्ति में 
प्रतिष्ठित होने के योग्य है। एक मात्र उपलब्ध नाट्यकृति होते हुए भी यह 
विशाखदत्त के नाम को आज भी जीवित रखे हैं और सदैव रखता रहेगा। किसी 
कवि ने ठीक ही कहा है-- 


ते धन्यास्ते महात्मानस्तेषां लोके स्थितं यश: । 
येनिबद्धानि काव्याति ये वा काव्येषु कौतिता: !!* 


न नननन अपन 
2. सुभाषितरत्नभाण्डागारम्‌, निणय सागर प्रेस, बम्बई, 952, पृ० 32 


चरित-चित्रण 


विशाखदत्त की नाट्यकला का उत्कर्ष उनके हारा सुनियोजित पात्रों के 
चरित-चित्रण में भी देखा जाता है। मृच्छकटिक को छोड़कर ऐसा कोई अन्य 
नाटक नही दिखाई पड़ता, जिसमें इतने वैविध्ययुक्त पात्र हों। शूद्रक ने 'मृच्छ- 
कटिक' में जिन पात्रों को लिया है, वे समाज के सभी वर्गो के हैं, लेकिन विशा- 
खदत्त ने जिन पात्रों योजना की है, वे विविध-कार्य करते हुए भी राजपुरुष 
हैं। वे सभी अपने स्वामी का कार्य-सम्पादन बड़ी निष्ठा से करते हैं। वाणक्य 
का अनन्यहृदय मित्र इन्दुशर्मा नामक ब्राह्मण जो शुक्राचार्य की दण्डनीति 
भौर ज्योतिश्शास्त्र के 64 अंकों में पारंगत है; चाणक्य की कार्य-सिद्धि के लिए 
क्षपणक वेश में घूमता फिरता है। चाणक्य का एक अत्यन्त विश्वस्त चर सिद्धा- 
थक चाण्डाल बनने में ज़रा भी संकोच का अनुभव नहीं करता, बल्कि वह स्वा- 
मिभकत को माँ के समान प्रज्य मानता है--अस्मादुृशजनन्य प्रणामामः स्वाभि- 
भक्त्य (5/9)। दूसरी ओर विराधगुप्त ऐसे लोग हैं, जो राक्षस का कार्ये- 
सम्पादन करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। विराधगुप्त, जो कभी नन्‍दों का 
पादपद्मोपजीवी था, सपेरे के वेष में पाटलिपुत्र की सड़कों पर साँपों का खेल 
दिखाता फिरता है। राक्षस का प्रिय मित्र श्रेष्ठी चन्दनदास उसके पुत्र-कलत्र 
की रक्षा करने में कारागार का कष्ट भोगता हैं और अन्त में शूली पर चढ़ने के 
लिए भी तैयार हो जाता है; लेकित अपने कत्तंव्य-पथ से ज़रा भी विचलित नहीं 
होता । ऐसे उज्ज्वल चरित्रवाले पात्र इस नाटक को अलौकिकता प्रदान करते 
हैं । 

विशाखदत्त ने अपनी बादूयरचनाचातुरी से एक दूसरे के ठीक विपरीत पात्न- 
युग्मों की सृष्टि की है, जैसे चाणक्य--राक्षस, चन्द्रगुप्त--मलयकेतु, निपुणक-- 
विराधगुप्त इत्यादि। त्ाटककार इस नाटक के प्रमुख चार पात्रों का विशेष 
परिचय प्रथम चार अंकों में करा देता है । उदाहरणत: प्रथम में चाणक्य का, द्वितीय 


42 विशाखदत्त 


में राक्षस का, तृतीय में चन्द्रगुप्त का और चतुर्थ में मलयकेतु का । इससे 
'विशाखदत्त का नादयरचना-कौशल ही विदित होता है।अतः एक ओर जहाँ 
अन्य नाटकीय गुणों से मुद्राराक्षस श्लाघनीय है, वहाँ दूसरी ओर चरित-चित्रण 
की दृष्टि से भी वह एक अनुकरणीय नाट्यकृति है। इसमें विविध पात्रों का 
जैसा चरित-चित्रण हुआ है, उसका विस्तारपुर्वेंक विवेचन किया. जीता 
है । 


चाणक्य 


इस नाटक प्रमुख पात्र चाणक्य है और हमारे विचार से वही नायक कहलाने 
पोग्य है। अत्यदूभुत कूटनीति को प्रपडिचत करने के उद्देश्य से नाटककार ने 
चाणक्य जैसे लोकोत्तर पात्र की सृष्टि की है। कौटिलीय अर्थशास्त्र और कामन्द- 
कीय नीतिसार के पढ़ने से चाणक्य का जो स्वरूप बनता है, उसे विशाखदत्त 
ने अपनी प्रतिभा से और भी विलक्षण रूप में सजाया-सँवारा है , चाणक्य का जो 
लोकोत्तर चरित विशाखदत ने चित्रित किया है, उसकी एक झलक कामन्दकीय 
नीतिसार के प्रारम्भिक इलोकों में मिलती है, जो पहले उद्धृत किये गये हैं।? 
अर्थशास्त्र में चाणक्य अपनी प्रबल प्रतिकार-भावना का परिचय इस रूप में कराता 


है-- 


येन शास्त्र चर शस्त्र च नन्दराजगता च भू: । 
अमर्षणोद्धृतान्याशु तेन शास्त्रमिदं कृतम्‌ ॥ (5/) 


अर्थात्‌ जिसने शास्त्र और नन्‍दों के राज्य का अपने क्रोध से उद्धार किया, 
उसी कौटिल्य ने इस शास्त्र की रचना की है। चाणक्य के इसी स्वभाव की ओर 
संकेत विशाखदत्त ने श्लोकार्ध द्वारा किया है-- 


कौटिल्य: कुटिलमति: स एष येन 
क्रोधाग्नौ प्रसभमदाहि नन्दवंश: । (/7) 


चाणक्य के सहज कोपन स्वभाव का चित्रण नाटककार ने आदि से अन्त तक 
किया है। वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव तत्पर रहता है चाहे; उसके 
लिए विषकन्या के प्रयोग आदि को भले ही साधन बनाना पड़े। वह साध्य 
के लिय साधन के औचित्य-अनौचित्य का कोई ध्यान नहीं रखता । तभी 


]. नीतिसार, अध्याय ], श्लोक 2-6 


चरित-चित्रण 73 


वह नन्दबंश के अन्तिम सम्राट सर्वार्थ सिद्धिको. जो तपोबन चला जाता है, वहाँ भी 
मरवा देता है, वाकि राक्षस निराश्चित हो जाय | चाणक्य की नीति की विशेषता 
यह है कि लोकगहित कार्य करके भी वह निन्‍्दा का पात्र नहीं बनता, अपितु 
उसका विपक्षी राक्षस बनता है। उदाहरणतः विषकन्या द्वारा चन्द्रगुप्त के आधे 
राज्य के अधिकारी पर्बतक को वह मरवा देता है मौर जनापवाद यह फैलाता 
है कि राक्षस ते हमारे अत्यन्त उपकारक मित्र पर्वतक को विषकन्या द्वारा मरवा 
दिया है। ऐसा करने से राक्षस, जो प्रजा का बड़ा प्रिय था, लोकनिन्दा और घृणा 


का भाजन बनता है । राक्षस चाणक्य की इस नीति के प्रति आश्चर्य-चकित होकर 
कहता है--- 


साध्षु कौटिल्य, साधु ! 
परिहृतमयशः पातितमस्मासु च घातितोधेराज्यहर: । 
एकमपि नीतिबीजं बहुफलतामेति यस्य तव ॥। (2/9) 


राक्षस अपने कार्य की विफलता पर दैव को कोसता है। यही नहीं, अपितु 
उसके पक्ष के लोग भी असफलता का कारण दैव की प्रतिकूलता को ही मानते हैं; 
जैसा कि निम्न उक्तियों से चरितार्थ होता है-- 
विराधगुप्त:--अमात्य, देवस्यात्र कामचारः कि क्रियताम्‌ । 
८ भर ८ 
राक्षस:--(सहर्षम्‌) कि हतो दुरात्मा चन्द्रगुप्त: ? 
विराधगुप्तः--अमात्य, दैवान्न हतः । (पृ० 30) 


>< >८ शरद 
राक्षस:--(सोहेगम्‌) कथमत्रापि दैवेनोपहता वयम्‌ । (प० 3॥ ) 
>८ ८ ८ 


राक्षस:--(सवाष्पम्‌) विधिविलसितम्‌ । 
तस्येदं विपुलं विधेविलसितं पुंसां प्रयत्नच्छिद: ॥ (पृ०255 ) 
2५ 2५ ५ 
मलयकेतु:--केन तहि व्यापादितस्तातः ? 
राक्षस:--दैवमत्र प्रष्टव्यम्‌ । (पू० 256) 
दूसरी ओर चाणक्य है, जो देव को कुछ नहीं समझता है। चन्द्रगुप्त के यह्‌ 
कहने पर कि नन्‍्दकुल के विह्वेषी दैव ने उनका विनाश किया (नन्दकुलविद्ठे पिणा 
दैवेन), वह आवेश में आकर करता है-- 
देवमविद्वांस: प्रमाणयन्ति । 


74 विशाखदत्त 


उसे अपनी नीति और बुद्धि पर अपार विशवास है; तभी वह अपने शिष्य 
शाइः गरव के यह कहने पर कि भद्रभट आदि पहले ही प्रातःकाल भाग गये, कहता' 
है, सबकी जाने दो, केवल मेरी बुद्धि न जाय, जिसमें सैकड़ों सेवाओं से अधिक शक्ति 
विद्यमान है और जिसकी शक्ति महिमा नन्दों के उन्मूलन में देखी जा चुकी 


है--- 


एका केवलमेव साधनविधौ सेनाशते भ्योडधिका 
नन्दोन्‍्मूलनदृष्टवीयं महिमा बुद्धिस्तु मा गान्‍्मम || (/25) 


चाणक्य ने गुप्तचरों की योजना करने में भी अपनी कुशलता का परिचय दिया 
है । स्वयं उसके पक्ष के गुप्तचर एक दूसरे को नहीं जानते और यह रहस्य चाणक्य 
अन्त तक खुलने नहीं देता । 


उसके गुप्तचर शत्रुपक्ष में जाकर ऐसा भ्रम उत्पन्न कर देते हैं कि शत्रुपक्षीय 
लोग कुछ भी निश्चय नही कर पाते कि क्या करना चाहिए । राक्षस ऐसा कुशल 
राजनीतिज्ञ भी बुद्धि-व्यामोह से ग्रस्त होकर कहता है-- ममतिस्तकारूढा व पश्यति 
निश्चयम्‌' (6/20) अर्थात्‌ हमारी बुद्धि तर्क-वितके में ग्रस्त होने के कारण किसी 
निश्चय पर नहीं पहुँच रही है। चाणक्य के प्रणिधि विषम परिस्थितियों में पड़कर 
भी अपने स्वामी के कार्य को उत्तम रूप में सम्पादित करते हैं। वे इतना सतर्क रहते 
हैं कि सम्पूर्ण नाटक में उनके क्रिया-केलापों में कोई त्रुटि नहीं दिखाई पड़ती | तभी 
एक स्थल पर भागुरायण कहता है--त खल्वनिश्चितार्थ॑मार्यचाणक्यप्रणिधयो5भि- 
धास्यन्ति (पू० 250)--अर्थात्‌ चाणक्य के गुप्तवर कभी किसी 
अनिश्चित बात को नहीं कहेंगे । वे विभिन्‍न परिस्थितियों में सदैव सजग रहते 


हैं । 


चाणक्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इतना दृढ़मति है कि कोई उसे 
कत्तेव्य मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। तभी राक्षस ऐसा घोर प्रत्तिद्वन्द्दी 
व्यक्तित भी उसके गुणों की प्रशंसा करने में संकोच का अनुभव नहीं करता। 
सप्तम अंक में जब चाण्डाल चाणक्य से कहता है कि यहू सब नीति-निपुण 
आपने किया है, तो वह अपने अहंंभाव को त्याग कर कहता है, नही मैंने नहीं, 
यह सब तो नन्दकुल के विद्वेंषी देव ने किया है । चाणक्य के मुख से ऐसा सुनकर 
राक्षतत आश्चय-चकित होकर कहता है--अयं दुरात्मा अथवा महात्मा 
कौटिल्य: ।' 


चरित-चित्रण 75 


आकर: सर्वशास्तराणां रत्तानामिव सागर: । 
गुण परितुष्यामो यस्य मत्सरिणो बयम्‌ ॥ (7/7) 


इससे अधिक चाणक्य के चारित्योत्कर्ष का वर्णन और क्या हो सकता है कि 
उसका प्रतिस्पर्धी राक्षस भी उसके गुणों की प्रशसा करता है। 


राक्षस 


विशाखदत्त ने नवतवतिकोटीश्वर नन्दों के स्वामिभकक्‍त अमात्य राक्षस का 
चरित इतनी उत्तमता से चित्रित किया है कि वह सहृदय सामाजिकों की निखिल 
पहानुभूति का भाजन बनता है | चाणक्य को भलीकभाँति ज्ञात है कि उसके विरोध 
में रहते हुए चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र के सिहासन पर कभी भी शान्तिएृवेंक नहीं 
बैठ सकता; अतएवं चाणक्य उसका निग्रह करवाता चाहता है। चाणक्य 
उसके गुणों पर मुर्ध है । उसे वह मन्त्रियों में बृहस्पति के समाव दिखायी पड़ता 
है---साधु अमात्य राक्षस, साधु। साधु श्रोन्रिय साधु । मन्त्रि बृहस्पते, साधु ।' 
(पृ० 66) 

प्रा: लोक में ऐसा देखा जाता है कि जो ऐश्वरय॑युक्त स्वामी की सेवा करते हैं, 
वे घन के लोभ में करते हैं और जो विपत्ति में उसका साथ देते हैं, वे उसके पुनः 
प्रतिष्ठित होने की आशा से । परन्तु स्वामी के प्रलयंगत हो जाने पर भी उसके 
सुकर्मो के प्रति आसक्त होकर नि:संगभाव से जो कार्यभार का वहन करते हैं, ऐसे 
मनुष्य संसार में दुलंभ हैं।” राक्षस एक ऐसा ही दुलंभ व्यवित है, जो नन्‍्दों 
के सान्वय विनष्ट हो जाने पर भी उनके विगत वैभव को पुन: श्रतिष्ठापित करने 
के लिए सतत चेष्टावान है। ऐपे स्वामिभकत व्यक्ति को चाणक्य चन्द्रगुप्त 
का महामन्त्री बनाना चाहता है, ताकि चर्द्रगुप्त का राज्य सदा के लिए स्थिर 
रह सके । राक्षस में प्रज्ञा है, विक्रम है और भक्ति (स्वामिभकति) है। जिस 
किसी में ये तीनों गुण विद्यमान हों, वही वस्तुत: सुभुत्य कहलाने का अधिकारी 
है और इनसे रहित व्यक्ति क्‍या सुख, क्‍या दुःख सभी अवस्थाओं में कलत्रत्‌व 
परिपोषणीय होता है । राक्षस की प्रज्ञा अथवा राजनी ति-प्रज्ञा का दर्शन द्वितीय 
अंक में होता है, जहाँ चिराधग्रुप्त पाटलिपुत्र का वृत्तान्त निवेदित करता है, जो 
उसने राक्षस के पाटलिपुत्र से निकल जाने के बाद आँखों से देखा है। चन्द्रगुप्त 
को मारने के लिए उसने जो योजनाएँ बनायी थीं, वे निश्चित ही सफल होतीं, 
यदि चाणक्य जैसा कुशल राजनीतिजन्ञ व्यक्ति चन्द्रगुप्त की रक्षा के लिए पदे 


2. मृत्रा 9. [/4 
3. वही, /5 


प6 विशाबदत्त 


सावधान न रहता। वह केवल बुद्धिमानू राजनीति-नियुण व्यक्ति ही नहीं, 
अपितु वीर भी है। जैसे ही विराधगुप्त उससे चन्द्रगुष्त और पर्वेतेश्वर की 
सम्मिलित सेनाओं द्वारा पाटलिपुत्र पर आक्रमण करने की बात करता है, उप्तका 
अदम्य उत्प्ताह जागृत हो उठता है और वह शस्त्र खींच कर कह उठता है-- 

'मेरे रहते हुए भला कौन पाटलिपुत्र पर घेरा डाल सकता है' (मयि 
स्थिते क: कुसुमपुरघुपरोत्स्यति) बह प्रवीरक नामक अपने एक सैनिक को 
सम्बोधित करके कहता है--'प्रवीरक ! शीघ्र ही प्राकार के चारों ओर 
धनुर्धारियों को चढ़ा दिया जाय और द्वारों पर शत्रु के हाथियों का भेदन 
करने में समर्थ अपने हाथियों को खड़ा कर दिया जाय तथा मृत्यु का भय 
छोड़कर शत्रु की दुबंल सेना पर प्रहार करने की इच्छा से वे लोग एकचित्त 
होकर मेरे साथ निकल आवें, जिनको अपना यश प्यारा हो ।' 


यह कितनी वीरत्व-ब्यञज्जक उक्ति है। पाठलिपुत्र अथवा कुसुमपुर जो 
उसके स्वामी नन्‍दों की राजधानी थी, उत्तके जीते जी शत्रुओं से घिर जाये, यह 
वह कैसे सहन कर सकता है। ऐसे अवसर पर वह पाटलिपुत्र की प्राचीर के 
अन्दर बन्द नहीं रहना चाहता अपितु बाहर निकल कर अपने शूरभटों के साथ 
शत्रु की सेना पर टूट पड़ना चाहता है । उसे अपने प्राणों का मोह नहीं, वह तो 
तो समरांगण मे अपने प्राणों की आहुति देकर नन्‍्दों की विगत प्रतिष्ठा को पुनः 
प्रतिष्ठापित करना चह॒ता है। वह शत्रु का वध कर असने दिवंगत स्वामी 
की आराधना करना चाहता है (देवः स्वगंगतोषपि शात्रवव्धेनाराधित: 
स्यादिति---2/5) | 

राक्षस कितना वीर है, यह तो उसके स्वामी नन्‍्द जानते थे; क्योंकि जब कभी 
पाटठलिपुत्र पर उपरोध का अवसर उपस्थित होता था तो वह यही कहते थे कि शत्रु 
की गजसेना की बाढ़ को रोकने के लिए राक्षस जाये और चड्चल अश्व-सना का 
निवारण करने के लिए भी राक्षस जाये, शत्रु की पदाति-सेना का विनाश भी राक्षस 
करे | इस प्रकार प्रीतिवश वह विविध आदेश देकर ऐसा मानते थे, मावो पाटलिपुत्र 
में एक नहीं सहस्नों राक्षस रह रहे हैं: 

अज्ञासी: प्रीतियोगात्‌ स्थितमिव नगरे राक्षसानां सहस्नम्‌ ।। (2/4) 

इसके अतिरिक्त राक्षस के अप्रतिम शूरत्व की झलक वहाँ देखने को मिलती 
हैं; जहाँ सेना की व्यूह-रचना कर वह पाटलिपुत्र पर आक्रमण करना चाहता है। 
वह इतना वीर है कि खप्त और मगध सैनिकों के साथ वह सेना के आगे-आगे 
चलना चाहता है--- 

प्रस्थातव्यं पुरस्तात्‌ खसमगधगणर्मामनुव्यूह्य सैन्ये: । (5/) 

4. सुद्रा०ण, 2/3 


चरित-चित्रण 77 


छठे अंक में रज्जुहस्त पुरुष से यह सुनकर कि चन्दनदास को शूली पर चढ़ानेके 
लिए चण्डालों द्वारा वध्यस्थान ले जाया जा रहा है, वह वीरत्व के आवेश में कह 
उठता है कि पौरुष के महान्‌ मित्र इस खड्ग से मैं चन्दनदाप्त के प्रार्णो की रक्षा 
करूँगा (नन्वनेन व्यवसायमहासुह॒दा निस्त्रिशेन--पृ० 287) । 


इस प्रकार राक्षस में अपार पौरुष का ६शैन होता है; उसके साथ ही उसमें 
अदूट स्वामिभवित भी है; क्योंकि वह यह नहीं देख सकता कि जिस सिहातन को 
उसके स्वामी नन्‍्द अलंकृत करते थे, उस पर अनभिजात चन्द्रगुप्त बेठे। तभी 
वह राजलक्ष्मी को कोस्ता है--'भयि अकुलीते ! क्या पृथ्वी पर सभी 
विख्यातवंश वाले राजा दग्ध हो गये थे कि तूने इस कुलहीन मौय्ये का 
पत्तिझप में वरण किया है। इसमें तेरा क्या दोष ! स्त्रियों की बुद्धि कास्-पुष्प 
के अग्रभाग की भाँति ही चञज्चल होती है, उसे पुरुष के गुणों की कोई पहिचान 
नहीं होती ।/* 


दूसरे अंक में सिद्धाथेंक शकटदास को वध्यस्धान से छुड़ाकर जब राक्षस के 
पास ले जाता है, उस समय शकटदास उसे पृथ्वी के स्वामिभक्त लोगों के आदर्श- 
रूप में देखता है, जिप्तकी स्वामिभक्ति ननदों के विनष्ट हो जाने पर भी पूर्ववत्‌ 
बनी हुई है-- 


अक्षीण भक्ति: क्षींणे5पि नन्‍्दे स्वाम्यर्थ मुद्रहन्‌ 
पृथिव्यां स्वामिभकतानां प्रमाणे परमे स्थित: ।। (2/22) 


राक्षत्त के अपने ही व्यक्ति नहीं, अपितु उसका महान्‌ प्रतिहन्द्री चाणक्य भी 
उसकी स्वामिभवित के प्रति मुग्ध है। वह कहता है--- 

अहो राक्षस नन्दवंशे निरतिशयों भक्तिगुण:-। स खलू कस्मिश्चिदपि 

जीवति नन्दान्वयावयवे वृषलस्थ साचिव्य॑ं ग्राहथितुं त शक्यते । (प० 65) 

राक्षरोषपि स्वामिनि स्थिरानुरागत्वात्सुचिरमेकज वासाचच 

शीलज्ञानां नन्दानुरकतानां प्रक्ृतीनामत्यन्तविश्वास्य: प्रज्ञापुरुष- 

काराभ्यामुपेत:।' (पृ० [75) 


इस प्रकार राक्षस में प्रज्ञा, विक॒म और स्वामिभक्ति--ये तीनों गुण आदरशे 
रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसी लिए चाणक्य उसे वश में करता चाहता है, ताकि वह 


3. मुद्रा, 2/7 


78 विशाखदत्त 


जैसे भी हो चन्द्रगुप्त का मन्त्री बनना स्वीकार कर ले । चाणक्य का समस्त नीति- 
जाल इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए फैलाया गया है। 

राक्षस को प्रजा का असीम स्नेह प्राप्त है । इस प्रजा-प्रेम की सूचेना नाटक- 
कार ने छठे अंक में दी है, जब वह जीणद्यान में प्रवेश कर कहता है कि नन्‍दों के 
जीवित रहते हुए जब मैं कभी पाटलिपृत्र से बाहर निकलता था, तो सहस्नों लोगों 
से घिरा हुआ राजा के समान चलता था और पुरवासी अपनी उंगलियों से नवो- 
दित चन्द्र के समान मेरी ओर संकेत करते थे कि यह देखो राक्षस जा रहा है लेकिन 
आज मैं विफल श्रम होकर त्रासवश इस जीर्णोद्यान में उसी तरह प्रवेश कर रहा 
हूँ, जैसे भय के मारे एक चोर प्रवेश करता है--- 


पौरैरझूगुलिभिनवेन्दुवदहं निदिश्यमान: शनै- 

यो राजेव पुरा पुरान्निरगर्म राज्ञां सहस्ने व त: । 

भूयः सम्प्रति सो5हमेव नगरे तत्रेव वन्ध्यश्रमो । 
जीर्णोद्यातकमेष तस्कर इव त्रासाद्विशाम्ति ब्रुतम्‌ ॥ (6/0 ) 


राक्षस प्रजा का स्नेहभाजन तो है ही, इसके अतिरिक्त वह एक आदर्श मित्र 
भी है | वह अपने मित्र के लिए प्राणोत्सर्ग करने में भी किड्चित्मात्र हिंचकिचाता 
नहीं ) पाटलिपुत्र का मणिकार श्रेष्ठि उसका मित्र है। मित्र ही नहीं, वह तो उसका 
दूसरा हृदय है, तभी पाटलिपुत्र को छोड़ते समय उसने अपनी पत्नी और पुत्र को 
उसके घर में रख दिया था। निपुणक नामक चर से इस वृत्तान्त को सुनकर 
चाणक्य कहता है--- 


नून॑ सुहृत्तम: | न ह्यनात्मसद्शेषु राक्षस: कलत्र न्यासीकरिष्यति | (पृ० 78) 


छठे अंक में जब रज्जुहस्त पुरुष से सुनता है कि चाण्डाल चन्दनदास को वध्य- 
स्थान ले जा रहे हैं, तो वह अकेले ही खड्ग हाथ से लेकर अपने मित्र की रक्षा के 
लिए चल देता है। पुनः जब उसे मालूम पड़ता है कि इस प्रकार शस्त्रपाणि जाने 
से चन्दनदास का वध शीघ्र हो जाएगा; तो वह शस्त्र को त्यागकर अपने प्राणों के 
विनिमय से छुड़ाना चाहता है। वह कहता है-- 


ओऔदासीन्‍्यं न युक्त प्रिय सुहृदि गते मत्कृते चातिघोरां 
व्यापत्ति ज्ञातमस्य स्वतनुमहमिमां निष्क्रयं कल्पयामि || (6/2) 


और वह ऐसा ही करता है। वह न चाहते हुए भी अपने मित्र के प्राणों की 
रक्षा के लिए चन्द्रगुप्त का सचिव बनना स्वीकार करता है। उसके अलौकिक गुण 


चरित-चित्रण 79 


के कारण चाणक्य-जैसा अभिमानी व्यक्ति भी आकर प्रणाम करता है-- भो 
अप्रात्य राक्षस ! विष्णुगुप्तोप्हमभिवादये' । (प० 306) 

राक्षत्त में सभी मानवीय गुण विद्यमान है। एक ओर जहाँ चाणक्य में 
वैयक्तिक माया-ममता का को कोई स्थान नहीं है, वहाँ राक्षस में सब कुछ है। वह 
अपने दुर्भाग्य को कोसता है; ननन्‍्दों के विनाश पर रोता है और अपनी असफलता 
को विधि का दुविलसित मानता है। वह विराधगुप्त को आहितुण्डिक वेश में 
देखकर दुःखी होकर कहता है--अये देवपादपद्मोपजीवनो5वस्थेयम्‌ 
(प१ृ० 2]) और रोने लगता है। वैद्य अभयदत्त के मरने पर वह शोक प्रकट 
करता हुआ कहता है--अहो महान्‌ विज्ञानराशिरूपरत: (पृ० 30) | वह किसी 
भी कार्य को करने में शीघत्रता नहीं करता, अपितु बहुत सोच-विचार करता है । 
पाटलिपुत्र पर आक्रमण करने के लिए जहाँ मलयकेतु त्वरा दिखलाता है, वहाँ 
वह शुभ मुहृत्ते जानने के लिए क्षपणक से विचार-विमर्श करता है। सब कुछ 
करने पर भी जब सफलता नहीं मिलती तो वह इसे विधि का विधान मानता 
है। वह भाग्यवादी है, चाणक्य की भाँति वह देव को चुनौती नहीं देता । 
अपने मित्र चन्दतदास को छुड़ाने के लिए जब वह पाटलिपुत्र की उपकण्ठभूमि 
में जाता है, तो अपने स्वामी की याद आती है और आँखों में आँसू भरकर चारों 
ओर देखता हुआ कहता है कि यह वही भूमि है, जो कभी देवनन्द के पाद-विक्षेप से 
पवित्र होती रहती थी--'एवतास्ता देवपादक्रमण परिचयपव्रित्रीक्षतला: 
कुसुमपुरोपकण्ठभूमयः ।' (पृ० 273) 

संक्षेप में, राक्षस में सभी मनुष्योचित गुण विद्यमान हैं, तभी वह अपने स्वामी 
का प्रिय है, भ्रृत्यों का प्रिय है, मित्रों का प्रिय है और सम्पूर्ण प्रजा का प्रिय है तथा 
अन्त में मुदाराक्षस नाटक के दर्शकों का प्रिय और प्रेमभाजन है। राक्षस का ऐसा 
चारित्योत्कत्षे-वर्णण विशाखदत्त की चरित-चित्रण-कला का चूड़ान्त निर्द्शन 


है। 


चन्दगुप्त 

चाणक्य और राक्षस की भाँति विशाखदत्त ने एक दूसरे के ठीक विपरीत 
दो अन्य पात्रों की योजना की है, चन्द्रगुप्त और मलयकेतु | ये दोनों राजा 
हैं और क्रमश: चाणक्य तथा राक्षस के प्रीतिभाजन हैं | चन्द्रगुप्त को कुछ लोग 
नाटक का नायक मानते हैं, क्योंकि वही फलभोकक्‍्ता है, राज्यश्री उसे ही प्राप्त 
होती है; लेकिन विशाखदत्त ने जैसा उसका चित्रण किया है, उससे वह नाटक 
का गौण पात्र प्रतीत होता है। प्रधाव पात्र तो चाणक्य और राक्षस हैं और उन्हें 
ही नायक और प्रतिनायक के रूप में स्वीकार करना चाहिए । चद्धगृप्त 
तीसरे अंक में रंगमंच पर उपस्थित होता है और वह चाणक्य का अज्ञानुवर्ती होने 


80 विशाखदत्त 
से पराधीनता का अनुभव करता है। वह कहता है कि पराधीन व्यक्ति भला सुख 
का भोग कैसे कर सकता है (परायत: प्रीते; कथमिव रसंवेत्तु पुरुष:---3/4)। 
राजलक्ष्मी उसे वाराहगता के समान दुराराध्या मालूम पड़ती है। लेकिन 
चन्द्रगुप्त का एक महान्‌ गुण है--चाणक्य के प्रति उसकी शिष्यवत्‌ अनन्यनिष्ठा । 
वह अपनी बुद्धि को आर्य चाणक्य के द्वारा संस्क्रियमाण होने में गौरव का 
अनुभव करता है । स्वप्न में भी वह चाणक्य के विरुद्ध आचरण करने की 
चेष्टा नहीं करता । अत: जब चाणक्य उसे कृतक कलह कर कुछ काल तक स्वतन्त्र 
रूप से राजकार्य करने को कहता है, तो उसे यह आदेश पातक के समान लगता 
है--- 
अन्यच्च । क्ृतक कलहें छत्वा स्वतन्त्रेण किचित्कालान्तरं 
व्यवहत्तंव्यमित्या दिश: । सच कथमपि मया पातकमिवाश्युपगतः ।' 
(पृ० 50) 
चाणक्य के प्रति उसका सम्मान-भाव सवंत्र नाटक में देखा जाता है। चाणक्य 
के आते ही वह सिंहासन से उठ खड़ा होता है और उसे प्रणाम करता हुआ पैरों 
पर गिर पड़ता है--इस प्तम्मान से चाणक्य आह्वादित हो उठता है और चन्द्रगुप्त 
को हाथ पकड़ कर उठाता है एवं ऐसा आशीर्वाद देता है, जो संस्क्रत-साहित्य में 
दुर्लभ है-- 


आ शौलेन्द्राच्छिलान्तस्खलितसुरनदीशीकरासारशीता- 
त्तीरान्तातनैकरागस्फुरितमणिरुचों दक्षिण स्यार्णवस्थ । 
आगत्यागत्य भी तिप्रणतनू पशतै:शश्वदेव क्रियन्तां 
चूडारत्नांशुगर्भास्तवचरण युगस्याड-गुली रत्प्रभागा : ।! (3/9 ) 


अर्थात्‌ शिलाखण्डों पर गिरती हुई गंगा के जलकणों की वर्षा 
से जो शीत होता रहता है, ऐसे हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र 
जिसमें अनेक वर्णों की मणियों की काम्ति चमकती रहती है--के 
तट तक के सैकड़ों राजा आ आ और भय से नत शिर होकर 
अपने चूड़ारत्नों की किरणों से तुम्हारे दोनों चरणों की उंगलियों के 
रन्थ्रभाग को सदा रणश्जित करते रहें। 
चाणक्य का यह आशीर्वाद उसके लिए अमूल्य निधि है। वह कहता है कि 
आपकी कृपा से यह सब मैं अनुभव कर रहा हँ--आर्यप्रसादादनुभूयते एवं सर्वेम्‌' 
(पृ० 62)। 
विशाखदत्त ने चाणक्य और चन्द्रगुप्त के बीच मन्त्री और राजा का नहीं 
अपितु गुरु-शिष्य भाव को प्रतिष्ठित किया है। चाणक्य उसे शिष्यवत्‌ मानता 


चरित-चित्रण 84 


है (बद्य॑वं तहि विज्ञापनीयानामवश्यं शिष्येण स्वैररुचयो न निरोद्धव्या--पृ० 63) 
और चन्द्रगुप्त उसे गुरुवत्‌ | तभी चन्द्रगुप्त तृतीय अंक के अन्त में कहता हैं कि 
मैंने आय॑ चाणक्य की आज्ञा से ही कृतक कलह करके मर्यादा का उल्लंघन किया है, 
तो भी ऐसी रलानि हो रही है कि भेरी बुद्धि पृथ्वी के विवर में समा जाय । जो 


लोग सचमुच गुरु का असम्मान करते हैं, भला लज्जाउनके हृदय को क्‍या नहीं 
विदीर्ण कर देतो--- 


आर्याज़्गयेव मम लड्धितगौरवस्य 

बुद्धि: प्रवेष्दुमिव भूविवरं प्रवृत्ता ! 

ये सत्यमेव हि. ग्रुरूनतिपातयबन्ति 

तेषां कथं नु हृदयं न भिमत्ति लज्जा ॥ (3/33) 


इसी भाव का दर्शन सातवें अंक में भी होता है, जहाँ पुनः चन्द्रगुप्त रगमच 
पर आता है। वह आकर बड़ी ही विनम्नतासे चाणक्य के निकट जाकर कहता 
है--आये, चन्द्रगुप्त: प्रणमति। इस पर चाणक्य गुरुवत उसे आशीर्वाद देता 
है--सम्पन्नास्ते सर्वाशिष: (प० 308) । उसके इन गुणों के ही कारण राक्षस 
उसे द्रव्य और मलयकेतु को अद्रव्य कहता हैं (7/4) चन्द्रगुप्त की विनम्नता 
आज्ञाकारिता आदि के कारण चाणक्य उसे पाटलिपुत्र के पिहासन पर आसीन 
करा देता है और राक्षस के साथ मैत्री करा कर उसका राजपद सदा के लिए स्थिर 
कर देता है| चन्द्रगुप्त कृतकृत्य होकर चाणक्य के प्रति अनुगृहीत होकर कहयाः 


राक्षसेन सम॑ मत्री राज्ये चारोपिता वयम्‌ । 
चन्दाश्चोन्मू लिता: सर्वे कि कत्तंव्यमत: प्रियम्‌ ।! (7/8) 


मलयकेतु 


विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के ठीक विपरीत मलथकेतु का चरित-चित्रण 
किया है। वह एक स्लेच्छ राजा है और मूर्ख एवं अदूरदर्शी है। राक्षस जैसे शुभ- 
चिन्तक ब्यक्ति को भी वह आशंका की दृष्टि से देखता है कि कहीं वह चन्द्रगुप्त 
से मिलने की योजना तो नहीं बना रहा है। मलयकेतु स्वयं कुछ भी सोचने में 
असमर्थ है। उसकी बुद्धि तो चाणक्य के विश्वस्त व्यक्ति भागुरायण 
द्वारा परिचालित होती है। यद्यपि उसमें प्रतिकार की भावना प्रवल है क्पों कि 
उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि पिता के मारे जाने से मेरी माताओं की जो दुर- 
वस्था है, वहीं मैं शत्रु की स्त्रियों की कर दूँगा, तभी मैं अपने दिवंगत पिता को 


82 विशाखदत्त 


जलाअजलि दूँगा"; लेकिन अपनी अयोग्यता और मूर्खतावश वह कुछ नहीं कर 
पाता । भागुरायण और सिद्धार्थक द्वारा वह इस प्रकार छला जाता है कि वह 
राक्षस के प्रति भी शंकालु हो उठता है। वह क्षपणक जीवसिद्धि की बातों पर 
विश्वास करके यह मान बेठता है कि हमारे पिता को चाणक्य ने नहीं, अपितु 
राक्षस ने मन्त्रिदद के लोभ में विषकन्या द्वारा मरवाया है। राक्षस को 
मलयकेतु की मूखंता पर बड़ा दुःख होता है। वह कहता है कि उस म्लेच्छ 
ने यह नहीं सोचा कि जो अपने स्वामी नन्‍दों के समूल नष्ट हो जाने पर अभी 
भी उनके प्रति स्वामिश्नक्त है, वह (राक्षस) शरीर से अक्षत रहते हुए भला 
उनके शत्रुओं के साथ कैसे सन्धि करेगा। वह कुछ सोच भी नहीं पाता क्योंकि 
दुर्भाग्य से ग्रस्त लोगो की बुद्धि पहले ही उलट जाती है ।” उसकी मूर्खता पराकाष्ठा 
पर उस समय पहुँचती है, जब वह चाणक्य के कपट-लेख पर विश्वास कर चित्रवर्मा 
आदि पाँचों राजाओं को मरवा देता है, जो अपनी सेना लेकर उसकी सहायता के 
लिए आये थे । अन्त में वह राक्षस का भी परित्याग कर देता है ओर कहता है--+ 


'राक्षस, राक्षस, नाहूं विश्रम्भधाती राक्षस: । मलयकेतु: खत्वहम्‌ ! 

तद्गच्छ । समाश्रीयतां सर्वात्मना चन्द्रगुप्त: |” 

नाटक में मलयकेतु की मूर्खता सर्वत्र परिलक्षित होती है। युद्धक्षेत्र में भी 
उसे परिस्थिति की गम्भीरता का आभास नहीं होता और वह पीछे से चुपचाप 
जाकर भागुरायण की आँखें मूदने का खेल खेलता है। वह प्रतीहारी से कहता 
है-- 

'विजये ! मुहृ्तमसझचारा सव यावदस्य पराडमुखस्यैव पाणिश्यां नयने 
पिदधामि | 

समलयकेतु प्रत्येक कार्य बिना सोचे विचारे करता है । पाटलिपुत्र पर आक्रमण 
करने में वह यह नहीं सोचता कि कंसे व्यूह-रचना कर आक्रमण किया जाए। वह 
समझ बंठता है कि अब तो हमारी गजसेना अपनी सूंडों में पानी भर कर शोण नदी 
को सुखा डालेगी और पाटलिपुत्र को घेरकर अपनी सूँडों में भरे हुए पानी को नगर 
पर इस प्रकार बरसायेगी, जैसे मेघमाला विन्ध्यपवेत पर मूसलाधार वृष्टि करती 
है ।* अन्त में उसका वही हाल होता है जो भदूरदर्शी और मूर्ख राजाओं का होता 
है । चाणक्य के लोगों, भागुरायण एवं भद्र॒भट आदि द्वारा बह पकड़ा जाता है 
और पाटलिपुत्र भेज दिया जाता है। उसका जीवन चाणक्य की कृपा पर 
निभेर होता है। पाटलिपुत्र के सिहासन पर बैठने का उसका मनो रथ सदा के लिए 
अस्त हो जाता है। 


6. मुद्राराक्षम, 4/5; 7. मुद्राराक्षस, 6/8; 8. मुद्राराक्षस, पृू० 226 
9, मुद्राराक्षम, 4/7 


चरित-चित्रण 83 


लघुपात्र 


उपर्यक्त चार मुख्य पात्रों के अतिरिक्त विशाखदत्त ने दोनों पक्षों के लघु 
पात्रों की भी योजना मुद्राराक्षस में की है और वहाँ भी एक-दूसरे के ठीक 
विपरीत चरित्र वाले पात्रों को रखा है | उदाहरणत: इधर चाणक्य के पक्ष में 
साड्गरव है, तो उधर राक्षस के पक्ष में प्रियंददक | इधर निपुणक ताम का चर 
है, तो उधर आहितुण्डक विराधगुप्त । पुन इस ओर जीवसिद्धि क्षपणक ऐसा 
चाणक्य का सहपाठी मित्र है, तो दूसरी और चन्दनदास ऐसा राक्षस का 
अभिन्‍न हृदय मित्र इधर सिद्धार्थेक है, तो उधर शकटदास | इस प्रकार लघु 
पात्रों की भी योजना नाटककार ने बड़ी ही कुशलता से की है। चाणक्यपक्षीय 
लघुपात्रों में सिद्धार्थंथ, भागुरायण, क्षपणक निपृणक और शाहूगरव वर्णनीय 
हैं और राक्षसपक्षीय पात्रों में पुत्र-कलत्र के साथ चन्दत्दास, शकठदास 
विराधगुप्त और प्रियंवदक । यहाँ पहले चाणक्य के पक्ष के और तदनन्तर 
राक्षप्त के पक्ष के पात्रों का चरित-चित्रण किया जाता है--- 


सिद्धार्थक 


चाणक्य का यह अत्यन्त विश्वस्त गुप्तचर है। इसी के द्वारा वह शकठदास 
से कपथ लेख लिखवाता हैं और यही शकटदास को वध्यस्थान से छुड़ाकर राक्षस 
के प|स पहुँचाता है। चाणक्य का विश्वासपात्र होने के कारण ही वह इससे 
'कहता है--- 


'भ्रद्र कस्मिन्श्चिदाप्तजनानुष्ठेये कर्मणि त्वां व्यापारयितुमिच्छामि | 
(पृ० 86) 


इसके पश्चात्‌ चाणक्य जँसा कहता है, ठीक उसी प्रकार वह उसके कार्य 
को सम्पादित करता है । चाणक्य के कथनानुसार वह शकटदास को राक्षस के 
पास पहुँचाकर उसका विश्वास-पात्र बन जाता है और उससे पारितोधिकरूप में 
वह आभूषण प्राप्त करता है, जो मलयकेतु ने अपने शरीर से उतार कर राक्षस 
को पहनने के लिए भेजा था । जब मलयकेतु की सेना पाटलिपुत्र के निकट पहुँचती 
है, तो सिद्धार्थक चाणक्य के महान्‌ प्रयोजन को सिद्ध करता है। वह भागुरायण 
के आदेशानुसार भासुरक नामक परिजन से प्रताड़ित भी होता है, फिर भी 
ऐसा ही कुछ कहता है, जिससे मलयकेतु राक्षस के प्रति शंकालु हो जाता है। 
यहीं वह कपटलेख का भी रहस्योद्धाटन करता है, जिससे मलयकेतु के अन्दर 
यह विचार बद्धमूल हो जाता है कि राक्षस चन्द्रगुप्त से इस सिद्धार्थक के माध्यम 
से मिलना चाहता है और उसे मरवा देना चाहता है। मलयकेतु के अन्दर इस 


84 विशाखदत्त 


प्रकार के विचारों का बीजारोपण करने में सिद्धार्थंक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 
अन्तिम अंक में वही चाण्डाल का वेष धारण कर चन्दनदास को वध्यस्थान ले 
जाता है। उसे अपने स्वामी का कार्य करने में तनिक भी संकोच नहीं होता, चाहे 
उसे राजपुरुष से चाण्डाल ही क्‍यों न बनना पड़े | वह स्वामिभक्ति को माँ के 
समान पूज्य मानता हुआ कहता है--- 


आनयन्त्य गुणेषु दोषषु पराडमुखं कुवेत्य । 
अस्मादृशजनन्य प्रणमामः स्वामिभवत्य ।। (5/9) 


चाणक्य के प्रतिद्वन्दी राक्षस का निग्नह कराने में सिद्धाथेक का बहुत बड़ा 
योगदान है। उसकी इस महत्ता के कारण ही नाटककार ने उसे पाँच अंकों 
(।, 2, 5, 6, 7) में रखा है। राक्षत को छोड़कर कोई भी पात्र इतने अंकों में 
नहीं आता । विशाखदत्त ने उसे बड़ी निपुणता से अपने नाठक में चित्रित किया 
है । वहु चाणक्य के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा और स्वामिभकित से वह स्थान प्राप्त 
करता है, जो अन्य लघु पात्रों के लिए दुलेभ है| 


भागुरायण 


भागुरायण भी पिद्धार्थक की भाँति चाणक्य का बड़ा ही विश्वस्त व्यक्ति 
है । मलयकेतु को राक्षस से विमुख करने में भागुरायण की महत्त्वपूर्ण भूमिका 
है | वह सेनापति सिहवल का छोटा भाई है और चाणक्य के प्रयोजन की सिद्धि 
के लिए प्रथम अंक में आक्रमण कर मलयकेतु के पास जाकर उसका स्नेहभाजन 
बन जाता है। उसके बिना मलयकेतु एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता, यह 
बात वह भासुरक से कहता है--भद्र भासुरक, न मां दूरीक्षवन्‍्तमिच्छति 
कुमार: ! अतो5स्मिन्तेवास्थानमण्डपे न्‍्यस्थतामासनम्‌”। (पृ० 224) 

भागुरायण में सभी मानवीय गुण हैं। इसलिए यह सोचकर उसे बड़े क्लेश 
का अनुभव होता है कि वह अपने प्रति इतना स्नेह रखने वाले मलयकेतु के साथ 
छल कर रहा है--कष्टमेवमप्यस्मासु स्नेहवान्कुमारों मलयकेतुरतिसन्धातव्य 
इत्यहो दुष्करम्‌' (पृ० 224) । 

मलयकेतु की विवेकशून्यता का लाभ उठाकर वह जैसा चाहता है, उसे मोड़ 
देता है। वह मलगकेतु से इस प्रकार बात करता है जिससे मलयकेतु के अन्तर में 
राक्षस के प्रति अविश्वास पैदा हो जाता है और वह सोचने लगता है कि कहीं 
राक्षस चुपके-चुपके चन्द्रगुप्त से मिलकर उसका मन्त्रिपद प्राप्त करना तो नही 
चाहता | बहुत सोचने-विचा रने पर भी जो बात मलयकेतु की समझ में नहीं आती, 
उस्ते भागुरायण यह कहकर आसानी से समझा देता है-- कुमार, न दु्बोधोज्य- 


चरित-चित्रण 85 


मर्थ:, (पृ० 93) और मलयकेतु उसे ठीक समझ लेता है।(युज्यते--पृ०94) । 
मलयकेतु को जब क्षपणक जीव सिद्धि से यह ज्ञात होता है कि उसके पिता को राक्षस 
ते विषकन्या के प्रयोग से मरवाया है, ऐसी स्थिति में भावावेश में कहीं मलयकेतु 
राक्षम को न मरवा दे, वह चाणक्य के इस आदेश का स्मरण कर 'रक्षणीया 
राक्षसस्य प्राणा: (पृ० 232) उसको प्रकृृतिस्थ करता हुआ कहता है-- कुमार, 
अलमावेगेन । आसनसस्‍्थ॑ कुमार किड्चिद्‌ विज्ञापयितु मिच्छामि (पृ० 232)॥ 
मलयकेतु कुछ शान्त होकर बैठ जाता है और कहता है---सखे किमसि वस्तुकामः' 
(पृ० 232) | पञ्चम अंक की समाप्ति पर स्वपक्ष से हौन मलयक्रेतु को भद्रभटादि 
द्वारा पकड़वाने में वह शीघक्रता करवाता हुआ कहता है--'कुमार, कृते काल- 
हरणेन साम्प्रतं कुसुमपुरोपरोधायाज्नप्यन्तामस्मद्रलानि (पृ० 258) 

इस प्रकार मलयकेतु को राक्षस से पूथक्‌ कर भद्रभट आदि द्वारा पकड़वाने 
में भागुरायण का बड़ा ही योगदान है। वह अत्यन्त प्रत्युत्पन्नमत्ति, दूरदर्शी और 
नीतिनिपुण है। परिस्थिति के अनुसार घटनाओं को मोड़ने में वह अत्यधिक चतुर 
है । उसकी राजनेतिक चातुरी नाटक में स्थान-स्थान पर दिखाई पड़ती है । 


क्षपणक 


जीवसिद्धि क्षषणक चाणक्य का सहपाठी मित्र इन्दुशर्भा नामक ब्राह्मण है 
जो ज्योतिष के चौंसठ अंकों में पारंगत है। चाणक्य ने जैसे ही नन्‍्दवंश के 
विनाश की प्रतिज्ञा की थी, वैसे ही इसे क्षपणक के वेष में पाटलिपुत्र में लाकर 
नन्‍्द के अमात्यों के साथ मैत्री स्थापित करवा दी थी और उन्हें नहीं मालूम था 
कि यह चाणक्य का व्यक्ति है । राक्षस के साथ इसकी अत्यधिक मित्रता थी और 
लोग इसे राक्षस का अन्तरंग मित्र मानते थे। पाँचवें अंक के प्रारम्भ में सिद्धार्थक 
से उसकी बातचीत होती है और वह॒ जब मलयकेतु के कटक से पाटलिपुत्र जाने 
के लिए मुद्रा लेने भागुरायण के पास जाता है, तो उसे देखते ही भागुरायण 
कहता है--भये राक्षसस्य मित्र जीवसिद्धि:; (पृ० 227) | पुत्र: क्षपणक के साथ 
उसकी बातचीत होती है, उसी बातचीत में वह कहता है कि राक्षस ने ही मेरे 
द्वारा विषवान्या से पर्वतक को मरवाया है। यह बात मलयकेतु भी सुन लेता है 
और क्षपणक क्षतार्थ हो जाता है, 'अये, श्रुतं मलयकेतुहतकेन । हन्त कृतार्थो5स्मि' 
(प० 23) | ऐसा कहकर वह चला जाता है। तत्पश्चात्‌ रंगमंच पर उसका 
दर्शन नहीं होता है, लेकिन उसने पर्वंतक के मारे जाने का जो रहस्योद्घाटन किया 
है, उसी को यथार्थ मान मलयकेतु राक्षस को हमेशा के लिए त्याग देता है। इस 
प्रकार मलयकेतु और राक्षस में फूट डालने में क्षपणक का बहुत बड़ा हाथ है। 
यह वस्तुतः जैन संत्यासी के वेष में घूमता था. लेकिन कुछ लोग उसे बोद्ध संन्‍्यात्ती 
भी मानते हैं । 


86 विशाखदत्त 
निपुणक 


इसका दर्शन केवल प्रथम अंक में होता है । यह चाणक्य का गुप्तचर है, जिसे 
उसने पाटलिपुत्र में यह जानने के लिए भेजा है कि कौन लोग चब्द्रगुप्त के प्रति 
अनुरक्‍त हैं और कौन विरक्‍्त | वह यमपट लिए हुए पाटलिपुत्र में घूमता है और 
कौन विरकक्‍्त | वह यम्पट लिए हुए पाट्लिपुत्र मे घूमता है और पता लगाता हैं 
कि चन्दनदास के घर में राक्षस के पुत्र-कलत्र रह रहे हैँ | इतना दह्वी नहीं, वह 
राक्षस की पत्नी के हाथ से गिरी हुई राक्षसनामांकित अंगुलिमुद्रा भी लाकर 
चाणक्य को देता है; जिसे देखते ही भविष्य की सारी योजनाएँ चाणक्य के 
मस्तिष्क में घूम जाती हैं और वह और वह सहसा कह उठता है-- ननु वक्‍तव्य॑ 
राक्षस एव राक्षस एवं अस्मदड्ग्गुलिप्रणयी संवृत्त: (पृु० 78)। इस' प्रकार वह 
राक्षस की “अंगुलिमुद्रा' लाकर चाणक्य का महान्‌ प्रयोजन सिद्ध करता है, क्योंकि 
इसी मुद्रा हारा ही राक्षस का निग्नह होता है। इस नाटक में यह लघुपात्र होते 
हुए भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। 


शार्डर्गरव 


यह चाणक्य का बड़ा ही आज्ञाकारी शिष्य है और अपने गुरु कें प्रति इसकी 
अत्वधिक श्रद्धा है। जब यमपट लिए हुए निपुणक आता है और पूछता है कि 
यह किसका घर है, तो वह बड़े गयवे से कहता है--'अस्माकमुपाध्यायस्य सूगृहीत- 
नाम्त आय॑चाणक्यस्य' अर्थात्‌ यह हमारे प्रातः स्मरणीय गुरु आर्य चाणक्य का 
घर है। पुतः चर के यह कहने पर कि मैं तुम्हारे गुरु को धर्म का उपदेश दूंगा, वह 
अत्यन्त रुष्ट होकर कहता है कि मु्ख, क्या तू हमारे उपाध्याय से अपने को अधिक 
धर्मचेत्ता समझता है ('धिछमूखे, कि भवानस्मदुपाध्यायादपि धर्म वित्तर')। पुनः 
उसके यह कहने पर कि सभी लोग सब कुछ नहीं जानते; कुछ तुम्हारे उपाध्याय 
जानते हैं और कुछ हमारे जैसे लोग भी जानते हैं, शाइर्गरव कुपित होकर कहता 
है--'मूर्ख, सर्वज्ञतामुपाध्यायस्थ चोरयितुमिच्छसि' अर्थात्‌ “अरे भूख, तू हमारे 
गुरु की सर्वज्ञता को चुराना चाहता है। इस प्रकार एक गुरु का जैसा अच्छा शिष्य 
होना चाहिए, वैसा ही शा्र्गरव है। वह बुद्धिमान है, आज्ञाकारी है और चाणक्य 
ऐसे सहज कोपन व्यक्ति का रूखा व्यवहार भी उसे उद्दिग्न नही करता | इस 
प्रकार नाटककार ने वड़ी ही निपुणता से शाहर्गरव जैसे लघु पात्र का भी 
शलाघनीय चरित-चित्रण किया है। 


चन्दनदास : उसकी पत्नी और पुत्र 
राक्षसपक्षीय पात्रों मे सबसे उज्ज्वल और अनुकरणीय चरित चन्दनदास का 


चरित-चित्रण 87 


है | पाटलिपुत्र का मणिकार श्रेष्ठी है ओर राक्षस का सुहत्तम है. तभी राक्षस ने 
उसके घर में अपनी पत्नी और पुत्र को छोड़कर पाटलिपुत्र से अपक्रमण किया 


था | निपुणक नामक चाणक्य का चर उसे अमात्य राक्षस का दूसरा हृदय 
कहता है--- 


तृतीयोडपि अमात्य राक्षसस्य द्वितीयमिव हृदयं पुष्पपुरनिवासी 
मणिकारश्रेष्ठी चन्द्ददासों नाम। मस्यगेहेकलत्न न्‍्यासीकृत्य 
अमात्यराक्षसों नगरादपक्रान्त: |” (पृ० 77) 
उसके सुहृत्त मत्व को चाणक्य भी स्वीकार करता है--- 
'नून॑ पुहृत्तम: । न द्यतात्मसदुदेशेषुराक्षस: कलत्र नन्‍्यासी करिष्यति ।' 
(पृ० 78) 


निपुणक से अंगुलिमुद्रा प्राप्त करते का वृत्तान्‍न्त सुनकर चाणक्य को यह 
निश्चय हो जाता है कि चन्दनदास के घर में ही राक्षत की पत्नी और पुत्र रह 
रहे हैं। वह बुलाया जाता है और चाणक्य राक्षस के गृहजन को समपित करने के 
लिए उसे लोभ दिखाता है-- 
'तत्क्रियतां पथ्यं सुहृद्च:। समप्पंतां राक्षसगृहजन:। अनुभूयतां 
गिरं विचित्रो राजप्रसाद: ।' (पृ० 99) 
जब चन्दनदास इस लोभ के प्रति आक्ृष्ट नहीं होता, तो चाणक्य उसे भय 
दिखाता हुआ कहता है-- 
शो: श्रेष्ठिन्‌ एवमयं राजापध्यकारिपु तीक्षणदण्डो न मप॑गसिष्यति 
राक्षसकलत्र प्रच्छादानं भवतः। तद्रक्ष परकलत्रेणात्मन: कलत्र 
जीवितं च।' (प०० 99) 


इस प्रकार चन्दनदास बिना भयभीत हुए अविचलभाव से कहता है--आयें 
कि में भय॑ं दर्शयसि। सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षमस्थ गृहजनं ते समर्पयामि कि 
पुनरसन्तम्‌, (पृ० 99) । यह वाक्य उसके चरित्र में दिव्यता ला देता है। पुनः 
चाणक्य रोष में आकर कहता है--“चन्दनदास, ए ते निश्चय:” (पु० 99) और 
उसके उतर में चन्दनदास कहता है-- वाढ्मेष धीरो मे निश्चय: (पृ० 99) ॥ 

चन्दनदास का चरित कितना उदात्त है,इस बातचीत से इसकी सूचना 
मिल जाती है । चाणक्य भी गुणग्राहक है। वह मन ही मन उसके गुणों की प्रशंसा 
करते हुए कहता हैं--चन्दनदास तुम धन्य हो | परकीय वस्तु के समर्पण में अर्थे- 
लाभ होते हुए भी इस प्रकार का दुष्कर कार्य राजा शिबि के अतिरिक्त भला 
और कौन कर सकता है ? 


88 विशाखदत्त 


साधु चन्दनदास साधु । 
सुलभेष्वर्थलाभेषु परसंवेदने जने। 
क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिबिना बिना ॥। (/23) 


इसी भाव का अनुवदन सातवें अंक में राक्षत भी करता है। वह कहता है कि 
दुष्टों को रुचिकर लगने वाले इस पापी कलिकाल में इस चन्दनदास ने अपने प्राणों 
से दूसरों की रक्षा करने में राज शिबि के भी यज्ञ को अति लघूुता को प्राप्त करा 
दिया है-- 


दुष्कालेषपि कलावसज्जनरुचौ प्राण: पर रक्षता 
नीत॑ येन यशस्विनाइतिलघुतामौशीनरीयं यशः ।। (7/5) 


चन्दनदास चाणक्स के कोप का भाजन बनता है। वह पत्नी और पुत्र के 
साथ बन्धनागार में डाल दिया जाता है। उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति छीन ली जाती 
है और उसके लिए मृत्युदण्ड का विधान होता है; तब भी वह हिमालयवत्‌ 
अडिग रहता है ओर कहता हैं---दिष्ट्या, मित्रकार्येण में विनाशो न पुरुषदोषेण' 
(पृ० 0]) 

सातवें अंक में एक बार फिर चन्दनदास के दशेन होते हैं, जब वह चाण्डाल- 
वेषधारी सिद्धार्थक और समिद्धार्थक द्वारा वध्यस्थान ले जाया जाता है। मृत्यु 
का भय और पत्नी और पुत्र के वियोग का दुःख उसे विचलित नहीं कर पाता । वह 
अपनी विषण्ण पत्नी को सान्‍त्वना देता हुआ कहता है---आयें, भय॑ मित्रकार्येण में 
विनाशो न पुनः पुरुषदोषेण। तदलं विषादेन'। वध्यस्थान में उसे शूली पर चढ़ाने 
के लिए जब चाण्डाल ले जाते हैं, तो उसकी पत्नी और पुत्र उसका अनुगमन करते 
हैं। यहाँ नाटककार ने उसकी पत्नी और पुत्र का भी बड़ा की उज्ज्वल चरित 
निरूपित किया जाता है। वह अपनी पत्नी से पूछता है कि तुमने क्या निश्चय 
किया है ? इस पर वह यही कहती है कि मैं तो आपके चरणों का अनुगमन 
करूँगी । पुन: चन्दनदास कहता है कि नहीं, ऐसा न करो अपितु जीवित रहकर इस 
पुत्र की रक्षा करो, जिसने अभी संसार देखा नहीं है। इस पर वह पुनः कहती है 
कि इस पर कृपा तो प्रसन्न देवता करेंगे। भाव यह है कि वह एक आये-ललना की 
भाँति अपने पति के दिवंगत होने पर अपने प्राणों का उत्सगं कर देना उचित 
समझती है । अतः विशाखदत्त ने चन्दन की पत्नी का एक आदर्श भारतीय नारी के 
रूप में चरित-चित्रण किया है। नाटककार ने एक वाक्य द्वारा चन्दनदास के चरित 
को भी दिव्यता प्रदान की है। चन्दनदास अपने पुत्र को सास्त्वना देता हुआ कहता 
है--- तात, मैं मित्र-कार्य को करता हुआ उस विनाश का अनुभव कर रहा 


चरित-चित्रण 89 


हूँ। इस पर पुत्र कहता है-- 'तात, किमिदानीं भणितव्यम्‌। कुलधर्म: 
खल्वेषोउस्माकम्‌” अर्थात्‌, क्या यह भी कोई कहने की बात है; यह तो हमारा 
कुलधम है । यह वाक्य ही उस छोटे बालक के चरित को उज्ज्वल बना देता है । 

इस प्रकार चन्दनदास का पुरा परिवार कत्तंव्य-परायण है। चाटककार ने 
अत्युत्तम रूप में सभी का चरित निरूपित किया है। चन्दनदास का परिवार एक 
आदर्श भारतीय परिवार का स्मरण करा देता है। 


शकटदास 


शकटदास राक्षस का मित्र है, जिसको उसने पाटलिपुत्र में महात कोप के 
साथ इस अभिप्राय से रखा है कि शत्रु में फूट डालने और चन्द्रगुप्त को मरबाने में 
जो भी धन-व्यय करना पड़े, वह करे। उसमें विवेक का अभाव है, तभी वह 
सिद्धार्थक द्वारा कपट लेख लिखाये जाने पर थिना सोचे-विचारे लिख देता है। 
शकटदास द्वारा लिखित उस लेख से मलयकेतु को यह दृढ़ विश्वास हो जाता है 
कि राक्षस चुपके-चुपके चन्द्रगुप्त से मिलकर हमें मरवा देना चाहता है | शकटदास 
द्वारा लिखित इस लेख का ताटकीय घटनाचक्त में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। 
शब्ुपक्ष का व्यक्ति होने से उसे शूली पर चढ़ाने का आदेश होता है, लेकिन चाणक्य 
की योौजनानुसार सिद्धाथंक उसे वध्यस्थान से ले जाकर राक्षस के यहाँ पहुँचा 
देता है। सिद्धार्थक इससे पहले से ही अपनी मैत्री स्थापित कर लेता है। शकंटदास 
को ले जाने से सिद्धार्थंक भी राक्षस का विश्वासभाजन बनता है और अन्ततोगत्वा 
चाणक्य के कार्य का सम्पादन करता है। कपटलेख को शकटदास के हस्ताक्षरों में 
लिखा देखकर उसके प्रति राक्षस का अविश्वास बढ़ जाता है, लेकिन जब अन्त में 
चाणक्य कहता है कि मैंने ही वह कपट लेख सिद्धार्थक के द्वारा शकटदास से बिना 
उसकी जानकारी के लिखवाया था, तो उसके प्रति राक्षस का सन्देह दूर हो जाता 
है और वह प्रसन्‍त होकर कनता है--दिष्टया शकटदास प्रत्यपनीतो विकल्प: ।॥* 
इस प्रकार छोटा पात्र होते हुए भी नाटक में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 


विराधगुप्त 


विराधयुप्त कभी नन्‍दों के निकट रहने वाला व्यक्ति था, लेकिन' वह राक्षस 
के कार्य के लिए सपेरे के वेष में पाठलिपुत्र में घूमता है और राक्षस से उसके 
अपक्रमण पश्चात्‌ का सारा घटलाचक्र निवेदित करता है। उसके वर्णन करने की 
शैली बड़ी ही प्रभावपूर्ण है। उसके संवाद लम्बे होते हुए भी कुतूहलजनक हैं, अतः 
उन्हें सुनकर भी दर्शकों के चित्त में अरुचि नहीं उत्पन्त होती। वह केबल दूसरे 
अंक में रंगमंच पर आता है और एक-एक करके राक्षस की विफलताओं का 
वर्णन करता है। नाटककार ने इस पात्र की योजना निपुणक के ठीक विपरीत रूप 


90 विशाखदत्त 


में की है। वह नगर में यमपट लिए हुए घूमता था, तो यह सांपों का पिटारा 
लिए हुए। इसे राक्षस के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति नही जान पाता कि वह 
राक्षस का गुप्तचर है। इसने चर का कार्य सुन्दर रूप में कर अपनी सुपात्रता 
सिद्ध कर दी है। 


प्रियंबदक 


यह राक्षस का भृत्य है, लेकिन उसका वैसा ही कुछ कार्य है, जैसा चाणक्य 
के शिष्प शा्गरव का । निपुणक नामक गुप्तचर से शाह गरव की बातचीत होती 
है, तो इधर प्रियंवदक की राक्षम के गुप्तचर विराधगुप्त से । शाडः गरव निपुणक 
को सहसा प्रवेश नहीं करने देता । उसके वार्त्तालाप को सुनकर चाणक्य स्वयं उसे 
आने की अनुमति दे देता है (भद्र, विश्रब्ध॑ प्रविश | लप्स्यसे श्रोतारं ज्ञातारं च ), 
लेकिन प्रियंवदक अपनी बुद्धि से बिना कुछ सोचे जैसा विराधगुप्त कहता है, वैसा 
ही राक्षस से निवेदित करता है ॥!९ 

दोनों की बातचीत से ऐसा प्रतीत होता है कि शाह गरब जितना अधिक 
बुद्धिमान है, यह उतना ही मूख्॑ है | 

इस प्रकार नाटककार विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में चरित-चित्रण कर अपनी 
नाद्यकला को अत्युत्तम रूप में अश्निव्यक्त किया है। 


0. द्रष्टब्य भुद्रा ०, पु० ][7-8 


विशाखदत्तकालीन मानव-समाज 


कोई भी कृति अपने काल की दर्पण रूप होती है, क्योंकि उस समय का 
मनाव-समाज उसमें भलीभाँति प्रतिबिम्बित दिखायी पड़ता है। विशाखदत्त का 
मुद्राराक्षस भी ऐसा ही है, जिसमें उस समय की सामाजिक स्थिति का सम्यक दर्शन 
होता है । उस काल में वर्णाश्रमधम का क्या स्वरूप था, स्त्रियों की क्या दशा थी, 
लोगों की वेषशुया क्या थी, वे कौत-कौन अलंकार धारण करते थे, उनके 
मनोरञ्जन के साध्रन क्या थे और बड़ों के प्रति अभिवादन का क्‍या नियम था, 
इत्यादि बातो की जानकारी हमें मुद्राराक्षत्त के पढ़ने से होती है । इस दृष्टि से भी 
मुद्राराक्षत की महत्ता सिद्ध होती है। 


चर्णव्यवस्था 

वैदिक काल से हसारा मानव-समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर अवलम्बित रहा 
है। ब्राह्मणोस्य मुखमासीत्‌' (ऋ० 0/90/2; यजु० 3/]) इस मन्त्र को 
विद्वानों ने वर्णव्यवस्था का मूलख्रोत मानता है । इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और 
शुद्र इन चारों वर्णो की उत्तत्ति वतायी गयी है; इससे इस व्यवस्था की वेदमूलकता 
सिद्ध होती है मुद्राराक्षत्र में यद्यपि चारों वर्णों के क्रिया-कलायों का स्पष्ट: 
उल्लेख नहीं है, लेकित वर्ण-व्यवस्था की झलक अवश्य ही देखने को मिल जाती 
है| नाटक की प्रस्तावना में ब्राह्मण के लिए 'तत्रभवान्‌' एवं भगवान्‌ आदि 
गाब्दों का प्रयोग हुआ है, इससे उनके प्रति पुज्यभाव व्यक्त होता हैं। इस प्रकार 
का आदरभाव ब्राह्मणों के प्रति वैदिक काल से था, जैसा कि निम्न सन्दर्भो से 
प्रतीत होता है । 


ब्राह्मणों वै सर्वा देवता: (तैत्तिरीय ब्राह्मण [/4/4/2,4) 
अथ हैते मनुष्यदेवा ये ब्राह्मणा: (षड्विशन्नाह्मण /) 


92 विशाखक्त्त 


विशाखदत्त के समय में गुणवान्‌ ब्राह्मण संभवत: अधिक सम्माननीय थे, तभी 
चाणक्य पव॑तेश्वर द्वारा धारित आभूषणों को गुणवान्‌ ब्राह्मणों को देने को 
कहता है और यह भी कहता है कि उनके गुणों की परीक्षा कर हम उन्हें स्वयं 
भेजेंगे--- 
“किन्तु पर्वतेश्वरेण धृतपूर्वाँणि गुणवन्ति भूषणानि गुणवद्भ्य एवं 
प्रतिपादनीयानि । तदहँ स्वयमेव परीक्षितगुणान्‌ ब्राह्मणान्‌ 
प्रेषयामि । (पृ० 83) 
चाणक्य, विश्वावसु प्रभूृति तीनों भाइयों को चन्द्रगुप्त से आभूषण लेने 
भेजता है। थे ब्राह्मण ही हैं। इसके अतिरिक्त चाणक्य और राक्षस दोनों मन्त्री 
और क्षपणक जीवसिद्धि, ये सभी ब्राह्मण हैं। यद्यपि अध्यपन- अध्यापन ही 
ब्राह्मणों का मुख्य कार्य था, लेकिन अवसर पड़ने पर ये अन्य कार्यों को भी अपना 
सकते थे । इस ताटक में ये दोनों मन्त्री शस्त्र-ग्रहण करनेवाले दिखाये गये हैं । 
उदाहरणत:--- 
]. 'सो5हमिदानीमवसितप्रतिज्ञाभारोषपि वृषलापेक्षया या शस्त्र धारयामि ।/ 
(१०65) | 
2. 'वृषल, वृषल अलमुत्तरोत्तरेण। यद्यस्मत्तो गरीयान्‌ राक्षसोध्वगरस्यत्ते 
तदिदं शस्त्र तस्मै दीयताम्‌ ।' (पृ० 8) 
इन सदर्भों में चाणक्य के शस्त्रग्रहण का उल्लेख है। राक्षस का शस्त्र 
अर्थात्‌ खड्ग तो सर्वविदित ही है। वह जैसे ही विराधगुप्त के मुख से पाटलिपुत्र 
पर घेरा पड़ने का वृत्तान्त सुनता है, उसका पौरुष जाग पड़ता है और वह शस्त्र 
खींचकर कहता है कि मेरे जीवित रहते भला कौन पाटलिपुत्र पर घेरा डाल सकता 
है---(शस्त्रमाक्ृष्य, ससं भ्रमम्‌) अयि, मयि स्थिते कः कुसुरपुरमुपरोत्स्पयति | छठे 
अंक में राक्षस अपने खड॒ग को पौरुष का महान्‌ सुहृत्‌ मानता है--(खड़्गमाकहृण्य) 
'नन्‍्वनेन व्यवसायमहा सुहृदा' निस्त्रिशेन|---उसे विश्वास है कि वह इसी खड्ग से 
चन्दतदास को मरने से बचायेग । राक्षस ही नहीं, अपितु नन्‍्दों के जो वक्रनास 
आदि अन्य मन्ती थे, वे भी ब्राह्मण थे । उनमें राक्षस, दण्डनीति में परम प्रवीण, 
राजनीति के षड्गुणों का ज्ञाता, शुचि और शूरतम था | वही नन्‍्दों के राज्य की 
घुरी का वहन करता था । ऐसा टीकाकार दुंढिराज ने मुद्राराक्षस के उपोदुधात में 


कहा है-- 


वक्रनासादयस्तस्य कुलामात्या द्विजातय: । 

बधृवुस्तेषु विख्यातो राक्षसों नाम भूसुरः ॥ 
दण्डनी तिप्रवीण: स षाडगुण्यप्रविभाग वित्‌ । 
शुति: शूरतमो नन्‍देर्मान्यो राजधुरामघात्‌ ॥ 


विशाखदत्तकालीन मानव-समाज 93 


चन्द्रगुप्त नन्‍्द का पुत्र होने से क्षत्रिय ही था; यद्यपि मुरा दासी से उत्पन्न 
होने के कारण वह अभिजात नहीं कहा जा सकता | इस नाटक में वरणित कुलूत- 
देशाधिपति चित्रवर्मा, मलयनरपति सिहनाद जो मनुष्यों में सिंह कहा गया है, 
कश्मीर का राजा पुष्कराक्ष, सिन्ध्ुदेश का राजा सिन्धुषेण और पारसीकाघिराज 
मेष, ये वस्तुत: क्षत्रिय ही थे, लेकिन आर्य संस्कारों से रहित होने के कारण म्लेच्छ 
कहे गये हैं। इतके नाम इन्हें हिन्दू-राजा सिद्ध करते हैं और चित्रवर्मा, सिहनाद, 
नृसिह आदि शब्दों से इनका क्षत्रियत्व ध्वनित होता है। 


उस समय के समाज में वैश्यों की भी स्थिति थी। मणिकार श्रेष्ठी चन्दतदास 
जिसे अतेकशः वणिक्‌ कहा गया है, वैश्य ही होगा। पहले अंक में चाणक्य उसे 
कहता है--- 

।. दुरात्मन्‌, तिष्ठ दुष्टवणिक्‌ अनुभूयतां तहि नरपति क्रोध: | (पृ० 00) 

2. शीघ्रमयं दुष्टवणिक्‌ निगुह्मयताम्‌ । (पृ० 00) 


छठे अंक में राक्षस भी उसके लिए व्णिक्‌ शब्द का प्रयोग करता है-- 
क्ता्थोष्यं सोड्थंस्तव सति वणिक्त्वेषपि वणिज:। (6/7) 


मुद्राराक्षस में स्पष्टत: शूद्र शब्द का उल्लेख नहीं है, लेकिन चन्द्रगुप्त के 
लिए 'वृषल' और राजलक्ष्मी के लिए 'वृषली' शब्द का प्रयोग हुआ है-- 


पति त्यक्त्वा देव॑ भुवनपतिमुच्चे रभिजन 
गता छिद्रेण श्रीवुं पलमविनीतेव वृषली ।। (6/6) 


कोष में वृषल' शुद्र का पर्याय माता गया है--'शूद्राश्वावरवर्णाश्च वृषलाश्च 
जघन्यजा: (अमरकोष 2/0/) मुद्राराक्षत्त में अन्य जातियों का भी उल्लेख 
है, जिनकी गणना शूद्रों में होती थी । इनके मूल पुरुष क्षत्रिय थे, लेकिन वे धार्मिक 
क्रियाओं के लोप तथा ब्राह्मणों के अदर्शन अर्थात्‌ उनका सत्संग न होने से शुद्रत्व 
को प्राष्त हो गये थे । इन जातियों में ही काम्बोज, यवन, शक, चीन, किरात एवं 
खश आदि हैं, जिनका उल्लेख मुद्राराक्षस में हुआ है। भनुस्मृति में कहा गया 


है -- 


शनकरतु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: । 

वृपलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥। 
पौण्ड़काश्चोड्द्रविष्डा: काम्बोजा यवनाः: शकाः । 
पारदापक्तवाश्चीना: किराता दरदा: खशा: ॥ 0/43, 44 


94 विशाखदत्त 


इन चारों वर्णों के अतिरिक्त अन्य व्यावसायिक लोगों की भी चर्चा मुद्राराक्षस 
में हैं, जैसे कायस्थ, सूचरधार, शिल्पी, कुलाल, सपेरा, व्याध भादि। लेकिन इनके 
विषय में निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि ये लोग व्यवसायी थे अथवा 
उस समय जातिरूप में परिणत हो गये थे । 


आश्रम्त-व्यवस्था 


मुद्राराक्षस में यद्यपि आश्रम-व्यवस्था का स्पष्टत: उल्लेख नहीं है, लेकिन यत्र 
तत्र सन्दर्भो में इस व्यवस्था पर प्रकाश अवश्य पड़ता है । चाणक्य और शाडंगरव के 
गुरुशिष्यवत्‌ सम्बन्ध और उनके बीच हुए संवादों में ब्रह्मचर्याभ्रम की झलक 
मिलती है । तीसरे अंक में चन्द्रगुप्त के कंचुकी वैहीनरि ते जो चाणक्य के घर का 
चित्र खींचा है कि एक ओर गोमयों का तोड़ने के लिए पत्थर का टुकड़ा पड़ा है और 
दूसरी ओर ब्रह्मारियों द्वारा लाये हुए कुशों का ढेर लगा है, छत पर सूखी 
समिधाएँ पड़ी हैं--(3/ 5) इससे ब्रह्मचर्याश्रमस्थ एक वदु के गृह का ही दर्शन 
होता हैं। चाणक्य स्वयं वटु है । राक्षस उसके लिए व्यंग्यात्मक रूप में अनेक बार 
“बदु' शब्द का प्रयोग करता है । जैसे -- 

]. सखे, कुतश्चाणक्य वटो: परितौष: | (पृ० 2) 

2. नियतमतिधूर्तेन चाणक्यवदुना । (प० 27) 

3. शठः खल्वसी बदु: (पृ० 30) 

4. क्रस्य चाणक्यवटो विरुद्धमयुक्तमनुष्ठितं तेन | (पू० 35) 

गृहस्थाश्रम की सत्ता तो सदेव भारतीय समाज में रही है और आज भी 
है। गृहस्थ-जी वन्त का' मूल था कुल या कुदुम्ब। नाटक के प्रारम्भ में सूत्रधार 
और नटी की बातचीत में कौटुम्बिक जीवन की झलक दिखाई पड़ती हैं। सूत्र- 
धार नटी के लिए कुदुम्बिनी शब्द का प्रयोग करता है ('भवतु, कुटुम्बिनीमाहुय 
पृच्छामि', पृ० 54) और उसे त्रिव्ग--धमं, अथे॑ और काम--की साधिका 
कहता है (साधिके त्रिवर्गस्य-/5) | सूत्रधार नटी के लिए जिन विशेषणों का 
प्रयोग करता है , उनसे प्रतीत होता हैं कि उस समय कुटुम्ब में पत्नी सम्मान- 
जनक स्थान था--- 


गुणवत्युपायनिलये स्थितिहेतो: साधिके त्रिवर्गेस्थ । 
मद्भवननीतिविद्ये कार्याचार्ये द्रुतमुपेहि ॥। (/5) 


इससे यह भी आभास होता है कि उस समय गृहस्थ जीवन बड़ा सुखमय 
था ओर पति-पत्नी एक दूसरे की यथोचित सम्मान देते थे। पति-पत्नी के पार- 
स्परिक प्रेम का दशशन राक्षत और उसकी पत्नी के परस्पर व्यवहार में होता है, 


विशाखदत्तकालीन मानव-समाज 95 


जब राक्षस पाटलिपुत्र छोड़ते समय प्रेम की निशानी के रूप में स्वनामांकित 
अंगुलिसुद्रा अपनी पत्ती को देता है--सर्त्य नगरान्निष्कामतो मम हस्तादु 
ब्राह्मण्य उत्कण्ठा विनोदनाथ गृहीता ।? (पृ० ।40) 

इसी प्रकार एक आदर्श गृहस्थ जीवन की झाँकी चन्द्रदास और उसकी 
पत्नी तथा पुत्न के वार्तालाप में देखने को मिलती है। वह चाण्डालों द्वारा 
वध्यस्यान ले जाया जाता हुआ अपनी पत्नी से कहता है , हे कुटुम्बिनि ! तुम 
पुत्र के साथ लौट जाओ, हमारा अनुगमन करना ठीक नहीं'। इस पर पहनी 
कहती है---आयें |! आप परलोक को जा रहे हैं, विदेश नहीं; अतः हमें आपका 
अनुगमन करना चाहिए। आपके चरणों का अनुगमन करने से हमें आत्मानुग्रह 
होगा ।' वह पुत्र से अपने पिता को प्रणाम करने के लिए कहती है, और वह बैसा 
ही करता हैं। इससे एक आदर्श कौट्म्बिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है, जिसमें 
पत्नी का पति के प्रति और पुत्र का पिता के प्रति क्‍या कर्तव्य है, इसकी जानकारी 
होती है। 

वानप्रस्थ आश्रम का सुद्राराक्षस में कोई उल्लेख नहीं है, लेंकिन ऐसा मालूम 
पड़ता है कि लोग संसार से उद्विग्न होकर वनों में चले जाते थे जैसा कि सर्वार्थ- 
सिद्धि के आचरण से ज्ञात होता है. जो पाटलिपुत्र पर घेरा पड़ने पर पुरवासियों 
पर होने वाले भअत्याचारों को देखने में अपने को असमर्थ पाकर तपोबन चला गया 
गया--( तस्यामप्वस्थायां पौरजनापेक्षया सुरंगामुपेत्यापक्रान्ते तपोबनाथ देवे 
सर्वार्थ सिद्धो'। (१० 23-24) । इसके स्पष्ट होता हैं कि उस समय तपोवन थे, 
जिनमें लोग संसार से विरक्त होकर तप करने और शात्ति-लाभ करने चले जात्ते 
थे। राक्षस भी अपनी योजनाओं के असफल होने पर तपोबन जाने की सोचता 
हैं, लेकिन वह यह जानता हैं कि वहाँ उसके चित्त को शान्ति नहीं मिलेगी; 
क्योंकि उसमें तो वैरभाव भरा है--'कि गच्छामि तपोव् न तपसा शम्येत्सबेरं 
मन:--5/2 4) । 

क्षपणक जीवसिद्धि को संन्‍्यासी रूप में देखकर संन्यास-आश्रम का भी अनुमान 
होता है । इस प्रकार विशाखदत्त के समय में वर्णाश्रम-व्यवस्था का दर्शन होता है । 


स्त्रियों की दशा 


मुद्राराक्षस में स्‍त्री की विविध अवस्थाओं का निरूपण किया गया हैं। वह 
कन्या है, युवति है, नवत्रधू है, दयिता है और कुटुम्विनी है। स्त्री के गृहिणी रूप 
के प्रति बड़ा सम्मान व्यक्त किया गया है। वह सुशीलता एवं गृह्मकार्य दक्षता 
आदि गुणों से युक्त है; गृहस्थिति के हेतुभूत त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) की 
साधिका है; गृहतीति की जानकार है और गृह कार्यों की आचार्य हैं ।! नारी के प्रत्ति 


. मुद्रा० ]/5 


96 विशाखदत्त 


यह सम्मान प्रदर्शित करने में हो सकता हैं कि विशाखदत्त के मस्तिष्क में ममुस्मृति 
के ये श्लोक रहे हों-- 


यत्रनायंस्तु पुज्यन्ते रमच्ते तत्र देवता: ।। 
यत्रैतास्तु न पृज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: ।। 
सन्तुष्टो भाय॑या भर्ता भर्ना भार्या तथेव च। 
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै श्र बवम्‌ ।। 8/56,60 


विवाह के पश्चात्‌ कुलवधुएँ किस प्रकार धीरे-धीरे जाकर श्वसुर आदि 
गुरुजनों को प्रणाम करती थीं, यह राक्षस की अंगुलिमुद्रा के वृत्तान्त से ज्ञात 
होता हैँ, जो राक्षस की पत्ती की अंग्रुलि से प्रच्युत होकर लुढ़कती हुई निपुणक 
नामक गुप्तचर के निकट कुलवधू के समान आकर रुक जाती है ।* कुलीन घरों 
की स्त्रियाँ संभवत: घर से बाहर कम निकलती थीं, जैसा कि चन्दनदास के धर 
में रहती हुई राक्षस की पत्नी के प्रति विशाखदत्त की इस उक्त से प्रतीत होता 
है-- 
तत ईषदुद्वारदेशदापितमुख्या एकया स्त्रिया स कुमारको निष्क्रामन्नेव 
निरभेर्स्याविलम्बित: कोमलया बाहुलतया ।” (पृ० 80) 
इन कुलवधुओं के अतिरिक्त समाज में ऐसी कुलटाएँ भी थीं, जो अपने कुल 
की मान-मर्यादा को छोड़कर दूसरे कुल में चली जाती थीं-- (उच्छिन्ताश्रयकातरेव 
कुलटा गोबातनरं श्रीगंता---6/5) । उस समय के समाज में वेश्याएँ भी थीं, जिन्हें 
वेशवनिता' (3/5) अथवा 'ेशनाये:” (3/0) कहा गया है । वे 'कौमरुदी 
महोत्सव” ऐसे अवसरों पर अपने स्थूल जघन-भार से मन्द-मन्द गति से चलती हुई 
पाठलिपुत्र के मार्गों को अलंकृत करती थीं और बातचीत करने में निपुण धूत॑ लोग 
(विट) उनका पीछा करते थे-- 


धूर्तेरन्वीयमाना: स्फूटचतुरकथाको विदेरवेशनाएयों 
नालंकुव॑न्ति रथ्या: पुथुजघनभराक्तान्तिमन्दे: प्रयातै: ॥ (3/0) 


उस समय दूतियाँ भी थीं, जिनका कार्य था--पति से रूठी हुई नायिकाओं को 
मताना और उन्हें प्रसन्‍त कर उनके प्रियतमों से मिलाना। विशाखदत्त ने एक 
उपमा द्वारा दूती-कर्म की बड़ी सुन्दर व्यंजना की है ३ 


2. वही, पृ० 80 
3. वहीं, 3/9 


विशाखदत्त कालीन मानव-समाज 97 


स्त्रियों की बुद्धि बड़ी चंचल होती है, उन्हें पुरुष के ग्रुणों की पहचान नहीं 
होती, इसका भी निरूपण नाटककार ने बड़े सुन्दर ढंग से किया है-- 


प्रकृत्यां वा काशप्रभवकुसुमप्रान्तचपला ! 
पुरन्ध्रीणां प्रज्ञा पुरुषगुणविज्ञानविमुखी !। (2/7) 
उस समय के समाज में कुछ ऐसी भी स्त्रियाँ थीं, जिन्हें विषकन्या या 
विषाड्गना कहते थे । इन्हें बचपन से ही स्वल्पमात्रा में विष दिया जाता था ओर 
युवती होने पर वे पूर्णतः विषमय हो जाती थीं तथा इनके संसर्ग से मनुष्य की मृत्यु 
हो जाती थी । पर्वतक की मृत्यु इसी प्रकार की विषकन्या से हुई थी । 
इस प्रकार मुद्रा राक्षस में नारी के विविध रूपों का दर्शन होता है । एक ओर 
जहाँ चपल वारांगनाएँ और रतिकथा-निपुण दूतियाँ दिखाई पड़ती हैं तो दूसरी 
और ऐसी कुल्लीत एवं साध्वी स्त्रियों का भी दर्शन होता है, जो पत्ति के मरने पर 
स्वयं मृत्यु का वरण करती थीं, अर्थात्‌ सती हो जाती थीं । चन्दनदास अपनी पत्नी 
को ऐसा करने से रोकता है । 


बेष-भूषा और अलंकरण 


विशाखदत्त के समय में स्त्रियों और पुरुषों की क्‍या वेष-भूषा थी, इसका 
मुद्राराक्षस में स्पष्टतलः उल्लेख नहीं हैं, लेकिन लोग अधोवस्त्र और उत्तरीय 
अवश्य धारण करते होंगे, जेसा कि वैदिककाल में लोग घारण करते थे। समृद्ध 
लोग सुन्दरवस्त्र का बना वारबाण अर्थात्‌ कठ्चुक पहनते थे, जिसमें मोतियों 
की माला जड़ी रहती थी (विमलपुक्तामणिपरिक्ष प विरचितचित्रपटमयवार- 
वाण प्रच्छादितशरीरे--पृ० 27) | सिर ढकने में अवगुण्ठन का प्रयोग किया 
जाता था “(कथमेष खल्वमात्यराक्षसः क्ृतशीषविगुण्ठन द्वुत एवागच्छति' 
पु० 270) । अवगुण्ठन का आशय घूँघट लिया जाता है। कालिदास ने दुष्यन्त के 
दरबार में अवगुण्ठनवती शकुन्तला का प्रवेश कराया है (कास्विदवगुण्ठनवत्ती--- 
5/3) | मुद्राराक्षस के सप्तम अंक में चाणक्य का प्रवेश इस रूप में कराया गया 
है ('ततः प्रविशति जवनिकावृतशरीरो मुखमात्रदृश्यश्चाणक्य:) । यह संभवत: 
कोई वस्त्र होगा, जिससे अपने शरीर को ढक लिया जाता था, ताकि लोग पहचात 
न सकें | राजा लोग मुकुट धारण करते थे, जिनमें रत्न जड़े रहते (मणिमयमुकुठः 
निबिडपियमितरुचिरतरमौलो) | आभूषण स्त्री और पुरुष दोनों पहनते थे। 
पर्वेतेशवर को भूषणवल्लभ कहा गया है। गले में पहने हुए जाभूषणों से उत्तका मुख 
उसी प्रकार सुशोभित होता था, जैसे सन्ध्या समय नक्षत्रों के बीच में चन्द्रमा 
सुशोभित होता है (5/6) । किसी विशिष्ट व्यक्ति से मिलने जाने पर भी अलंकार 
पहने जाते थे, जैसा कि हम राक्षस को देखते हैं, जो बिता अलंकार धारण किये 


98 विशाब॑दत्त 


मलयथकेतु से मिलना ठीक नहीं समझता--- 

यथा परिधापिता कुमारेणाभरणानि वयम्‌ | तन्‍न युक्तमनलडकझृतेः कुमार- 

दर्शनमनुभवितुम्‌ ।' 

साधारण लोग भी कभी-कभी अलंकार धारण करते थे । सिद्धार्थक 
मलयकेतु-कटक से निकल कर पाटलिपुत्र में अपने मित्र समिद्धार्थक से 
मिलने जाता है, तब वह आभूषण पहने रहता है (/तत: प्रविशत्यलड्कृतः सहर्ष: 
सिद्धार्थक:) । ये आभूषण अलंकार पेटियों में रखे जाते थे (आये, इयं मुद्दा- 
लाडिछता पेटिका तस्य कक्षातो निपतिता') | इसे अलंकरणस्थगरिका भी कहा है 
(तत्त: प्रविशति लेखमलंकरणस्थगिकां मुद्रितामादाय सिंद्धार्थंक::) । उस समय 
स्त्रियां अपने सौन्दर्यवर्धत का विशेष ध्यान रखती थीं। उनके घुँघुराले केश 
भौंरों के समान काले रहते थे और वे अपने कपोलों में लोध्न प्रुष्पों के पराग का 
लेप करती थीं (5/23)। कालिदास के समय में भी यह एक प्रसाधन की 
सामग्री थी । उस समय भी स्त्रियाँ अपने मुखों में इसे लगाती थीं (नीता लोघ्र- 
प्रसवरजसा पाण्डुतामाननश्नी:, मेघदूत, उत्तर मेघ 2)। विशिष्ट अवसरों पर 
पृथ्वी पर चन्दन-जल का छिड़काव होता था ((क्षिप्रं चन्दरववारिणा सकुसुम: 
सेकोश्नगृह णातु गामु--3/2) । इससे उस समय की समृद्धि का भी आभास 


होता है| 


मनोर॑जन 

सानव-जीवन में आमोद-प्रमोद एवं मनोरंजन का भी विशेष महत्त्व है, 
क्योंकि इसके बिना तो जीवन बिल्कुल नीरस ही हो जाएगा। मुद्राराक्षस में 
इसके लिए ्रडारस शब्द का प्रयोग हुआ है---सच्यः क्रीडारसच्छेदं प्राकृतो5पिन 
मर्पयेत्‌' (4/0) | 

इस मनोरंजन के लिए नाठक खेले जाते थे और संगीत का भी अनुष्ठान 
किया जाता था, जैसा कि सूत्रधार के इस कथन से ज्ञात होता है-- तद्यायदिदानीं 
गृह गत्वा गृहजनेन सह संगीतकमलुतिष्ठामि')। संगीत में गीत, वाद्य और 
नृत्य इन तीनों की गणना होती है (गीत॑ वाद्य नतेनं च त्रय॑ संगीतमुच्यते)। 
सांसारिक दुखो से उत्पीड़ित लोगों के जीवन में मनोरंजन का होना परमावश्यक 
है । इस निमित्त समय-समय पर उत्सव भी मनाये जाते थे। कौमुदीमहोत्सव भी 
इसी प्रकार का उत्सव हुँ जो कारतिकी पूर्णिमा को विशाखदत्त के समय में मनाया 
जाता था। इस अवसर पर सम्पूर्ण नगर को सजाया जाता था और लोग सजधज 
कर निकलते थे और बड़े उल्लास के साथ इसे मनाते थे । वात्स्यायत के 'कामसूत्र' 
(/4/27) में इसे 'कौमुदीजागर' कहा गया हूँ, जो जयमंगला टीका के अनुसार 
आश्वयुजी अर्थात्‌ क्वांर मास की पूणिमा को मनाया जाता था । 


विशाखदत्तकालीव मानव-समाज 99 


अभिवादन 


विशाखदत्त के समय का समाज अत्यन्त शिष्ट था। लोग अभिवादन- 
प्रत्याभिवादन के नियमों के ज्ञाता थे । लोग अपने से बड़ों के लिए आचार्य” शब्द 
का प्रयोग करते और अपरिचित के लिए '“भद्र! शब्द का। लोग हाथ जोड़कर 
प्रणाम करते थे, जैसे कि प्रतीहारी की इस उक्त से ज्ञात होता हैं--“आर्य, 
देवश्चन्द्रश्मी: शर्ष कमलमुकुलाकारमर्ज्जाल निवेश्य आर्य॑ विज्ञापपति' | कभी-कभी 
अपने से बड़ों को प्रणाम करने में लोग साष्टांग प्रणिपात भी करते थे, जैसा कि 
चाणक्य के प्रति चन्द्रमुप्त के आचरण में देखा जाता है जो चाणक्य के आने पर 
सिंहासन से उठ खड़ा होता है और उसके चरणों में गिर पड़ता है---(आसाना- 
वृत्थाय) आये चन्द्रगुप्त: प्रगमति (इति पादयोः पतति) । 

इसके विनिमय में पूज्य व्यक्ति आशीर्वाद भी देता था: जैसा कि चाणक्य 
करता है और चन्द्रगुप्त को आशलेन्रात्‌' (3/9) के रूप में सार्वभौम सम्राद 
होने का आशीर्वाद देता है। इस प्रकार का आशीर्वाद संस्कृत साहित्य में अनुपम 
है। पुत्र पिता के चरणों पर गिरकर प्रणाम करता था, जैसा कि चन्दनदास का 
पुत्र अपने पिता के प्रति करता है। 

इस प्रकार विशाखदत्त के समय के अत्युस्त॒त एवं सक््य मानव-समाज का 
वर्शन मुद्राराक्षस में होता है । 


तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति 


आशेैलेन्द्रात!' (3/9) श्लोक में विशाखदत्त ने भारत का जो मानचित्र 
खीचा है, उसके अनुसार उत्तर में शैलाधिराज हिमालय है, जिसकी शिलाओं पर 
गंगा गिरती है और जो उसके जल-बिन्दुओं की वर्षा से सदा शीत रहता है। उसके 
दक्षिण में समुद्र है, जो अनेक वर्ण की मणियों की कान्ति से देदीप्यमान रहता है। 
अन्य सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि उस समय पूर्व में भारत बंग' देश तक विस्तृत 
था, जहाँ गंगा सिन्धुपति (बंगाल की खाड़ी) में लीन हो जाती है।! पश्चिम में वह 
पारसीक (फ़ारस) देश तक फैला हुआ था, जिस देश का राजा मेघ अपनी 
विशाल अश्व सेना के साथ मलयकेतु की सहायता के लिए आया था, इसके 
अतिरिक्त मलयकेतु की सेना में कुलूत, मलय, कश्मीर और सिन्ध देश के क्रमशः 
चित्रवर्मा, सिहनाद, पुष्कराक्ष तथा सिधुषेण राजा अपनी सेनाओं के साथ 
सम्मिलित थे ।* 

मलयकेतु का पिता पर्वतेश्वर अथवा पर्वतक संभवत्त: पार्व॑त्य प्रदेश का रहने 
वाला था, जैसा कि उसके नाम से विदित होता है। उसका राज्य भारत के उत्तर 
में था, जो पूर्व में मलयदेश, दक्षिण में कुलूत तथा पश्चिम में कश्मीर से घिरा था । 
सिद्धार्थेक वाचिक कथन में इन तीनों देशों के राजाओं द्वारा मलयकेतु के राज्य 
विभजान की चर्चा है ।* इससे स्पष्ट होता है कि ये सब राज्य मलयकेतु के सी मावर्ती 
राज्य थे । चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर की सम्मिलत सेना ने जब कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) 


4, मुद्रा० 3/9 
2. वही, /20 
3. वहाँ, पृ० 240 


तत्कालीन भारत की भीगोलिक स्थिति 0] 


पर घेरा डाला था, उस समय उस सेना में शक, यवन, किरात तथा #छम्बोज, 
पारसीक तथा बाह्वीक आदि देशों के सैनिक थे--- 
अस्ति ताबच्छक-यवन-किरात-काम्बोज-पारसीक-बाह्ली क-प्र भू ति भिए- 

चाणक्यमतिपरिगृही तैश्चन्द्रग॒ुप्तपवंत्तेश्वरबलैरुदधिरिव प्रलयोच्चलित- 

सलिली: समन्तादुपरुद्ध कुसुमपुरम्‌ । 

ये सभी भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित देशों के लोग थे। इसी प्रकार पांचवें 
अंक में जहाँ राक्षस द्वारा सेना की सम्यक व्यूह-व्यवस्था कर पाटलिपुत्र पर 
आक्रमण कर ने का उल्लेख है, वहाँ बस, मग्ध, गान्धार, यवन, शक, चीन अथवा 
चेदि, हुण तथा कुलूत आदि देशों के सैनिकों की चर्चा है-- 


प्रस्थातव्य॑ पुरस्तात्वसमगधगुणैमामनुव्युह्य सैन्ये- 

गन्छिरैमघ्ययाने सयवनपतिभि: संविधेय: प्रयत्न: । 

पश्चात्तिष्टल्तु वीरा: शकनरपत्तय: सम्भृताश्चीण (चेदि) हणैः 
कोलूताद्यश्च शिष्ट: पथि-पथि वृणुयाद्राजलोकः कुमारम्‌ ॥| (5/) 


मुद्रा राक्षस भें इन सब देशों के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि इन देशों की 
भौगोलिक स्थिति से विश्ञाखदत्त पूरी तरह अवगत थे।ये देश किस भू-भाग 
में स्थित: थे, इसकी जानकारी बिमल चरण लाहा की 'हिस्टोरिकल ज्यागरफ़ी 
आँव एन्श्यंट इंडिया' के अनूदित संस्करण, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, 
रणजीत सीताराम पण्डित की 'द सिगनेट रिग!* और एच. सी. राय चौधरी 
की 'पोलिटिकल हिंस्ट्री आँव एन्शयल्ट इण्डिया' के आधार पर दी जा रही 
है--- 

कुलृत--इंस देश के निवासी कौलूत कहलाते थे।यह देश व्यास नदी की 
ऊपरी घाटी में स्थित था। सातवीं शताब्दी में भारत आये चीनी यात्री हुएनत्सांग 
अथवा युवानच्वाड ने इसे देखा था और इसका माम 'कि-यु-लु-तु' (॥(॥7-70.) 
दिया है । इसी का वर्तमान नाम कुलू है । 

सलय --इस देश की स्थिति संदिग्ध है। संभवत: यह रावी ओर गण्डकी नदीं 
के मध्य में स्थित था। मुद्राराक्षत में इसका राजा सिहनाद कहा गया है, जो 
मनुष्यों में सिह (सिहनादों नृसिह:) के समान था । 


- वही, प्‌ू० ]22 
. उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रन्व मकादमी, लखनऊ से ]972 में प्रकाशित । 
. न्यू बुक कम्पनी, हानंबाई रोड, बम्बई, 944 


कलकत्ता विश्वविद्यानय, 950 


रा ज> 


9 


02 विशाखदत्त 


कश्मोर--यह्‌ आज भी इसी नाम से प्रस्तिद्ध है। इसके रहनेवाले काश्मीरी 
कहलाते थे। इसका राजा पुष्कराक्ष था, जिम्के नैत्र प्तंमवतः कप्रल के समान 
सुन्दर रहे होंगे । 

सिन्धु---पं भवतः यह देश सिन्धु नदी के दोनों तटों पर बसा होगा | आज भी 
यह सिन्ध नाम से प्रसिद्ध है। इस देश के रहनेवाले सैन्धव कहलाते थे। मुद्राराक्षस 
में इसके राजा का नाम सिन्धुषेण बताया गया है, जो इस बात को ध्वनित करता 
है कि उसकी सेना प़िन्धु नदी के उद्दाम प्रवाह की भाँति अथवा समुद्र की तरह 
उधड़ती, गरजती चलती होगी । 

पारसीक--यह नाम मुद्राराक्षस में चार बार (पृ० 8 4, । 22,240 और 257) 
प्रयुक्त हुआ है । इसका राजा मेघ अथवा मेघनाद (अन्तिम दो स्थलों पर) बताया 
गया है| यह नाम भी सार्थक है; क्‍यों कि!'यह युद्ध में मेघों के समान गर्जेता करता 
होगा। इसके पास विणाल अश्ववाहिनी थी वर्तेमान फ़ारस या ईरान देश से 
इसका समीकरण किया जा सकता है । 

शक---शक और यवनों का साय-स्ताथ उल्लेख होने से ऐसा प्रतीत होता है 
कि इनके स्थान एक दूसरे के निकट थे। शक्र संभवत्ः भारत के उत्त र-पश्चिम में 
सिन्धुनदी और सपुद्र के बीच के भूभाग में बसे थे । गुप्तकाल के पूर्व शक्तों की बड़ी 
सुदृढ़ स्थिति थी; क्योंकि ये गुप्त राजाओं के लिए निरन्तर उत्पीड़क थे । चन्द्रगुप्त 
विक्रमादित्य द्वितीय ने इन्हें पूर्णत: पराजित कर शक्रारि की उपाधि धारण की 
थी। 

यवत--ये यूनानी थे, जो सिकन्दर के आक्रमण के पूर्व अफगानिस्तान और 
उसके निकटवर्ती जनपदों में बस गये थे । बाद में यह शब्द “बैक्ट्रिया' के यूनान- 
तियों के लिए व्यवह्त होने लगा, जिन्होंने मौर्यों के पतन पर उतके सा ज्राज्य के 
उत्तर-पश्विम क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया था। प्राचीन पारक्ती यूनानियों को ही 
पत्रन कहते हैं । पालि साहित्य में पश्चिप्ती अफ़गा निस्तान को यवन देश कहा गया 
है । पतजञ्जलि के महाभाष्य से पता चलता है कि किस्ती यवन ने साकेत (अयोध्या ) 
और माध्यमिका (चित्तौड़ के पास) पर आक्रमण किया था (अहणद्यवत: साकेतम््‌ 
अछ गद्‌ यवतों माध्यमिकाम्‌)। बाद में शुंग राजाओं ते इनके विस्तार को 
रोका । 

किरात ये लोग संभवत: हिमालय और तिब्वत में स्थित थे। किसी ने इन्हें 
उत्तरापत्र में, तो किसी ते गंगा नदी के मुहाने के पश्चिम में स्थित बतलाया हैं। 
महाभारत शान्ति पत्र 65/3- 5 में इन्हें शक, यवत, गान्धार, कम्बोज आदि के 
साथ वर्णित किया गया है, जो आर्योंके धर्य और रीति-रिवाजों को छोड़ने के 
का ण पत्तित हो गये थे । 

कम्बोज--यह छठी शताब्दी ई. पू. में प्तोतह महाजनपदों में से एक था। 


क्त्कालीन भारत की भौगोत्रिक स्थिति 403 


इस देश की स्थिति गान्घार के समीप उत्तर-पश्चिम भारत में थी । किसी ने इसे 
कग्मीर के उत्तर में, तो किसी ने हिन्दूकुश के उत्तर-पुर्व में स्थित बताया है।इस 
देश के रहनेवाले काम्बोज कहलाते थे। यह देश उत्तम जाति के अश्वों के लिए 
प्रसिद्ध था। क्षेमेन्द्र ने कालिदास के मन्दाक्रान्ता की उपमा काम्बोज देश की 
तुरगांगना (घोड़ी) से दी है-- 
सुवशा कालिदासस्य मन्दाक्रान्ता प्रवत्गति । 
सदश्वदमकस्येव कम्बोजतुरगांगना ॥। (सुवृत्ततिलक, 3/34) 

बाहू लीक--यह ईरान के बलख का प्राचीच नाम है। यह प्रदेश कम्बोज के 
पश्चिम में स्थित था। चन्द्र के मेहरोली स्तम्भ में बाह लीकों को सिन्धुपार बत- 
लाया गया है। कुछ लोगों ने बाह्लीकों को वैक्ट्रिया की जनजातियाँ माना है; जो 
चुनाव और व्यास नदियों के बीच में बस गयी थीं । 

खस--यह कश्मीर के सीमाप्रान्त में रहनेवाली जनजाति थी, जिसका उल्लेख 
कल्हण ने “राजतरंगिणी' में लगभग चालीस बार से अधिक किया है। खस शब्द 
कुमायूं की पहाड़ियों में अभी भी प्रचलित है । श्री लका के ऐतिहासिक विवरणों 
से ज्ञात होता है कि अशोक ने पंजाब के उत्तरी भाग मे इन्हें पराजित किया था। 
पह जाति अभी भी कश्मीर की सीमा पर पीरपन्तसाल (॥फक्ा59[) पर्वत्त-श्रेणी 
के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में निवास करती है और खख नाम से जानी जाती है । 

मगध--आधुनिक बिहार का दक्षिणी भाग, जिसमें पटना और गया जिले हैं, 
कभी मगध कहलाता था। यह सोलह महाजनपदों में से एक था । इस राज्य के 
उत्तर में गंगा, पश्चिम में शोण और पूर्वे में चम्पा नदी बहती थी, जो अंग्र देश से 
इसको पृथक्‌ करती हुई गंगा में मिल जाती थी | इस राज्य के दक्षिण में विन्ध्य की 
पर्वत-श्रेणियाँ थीं। बुद्ध के समय में इसमें बिम्बसार का शासन था और इसकी 
राजधानी राजगृह थी । बाद में इसकी राजधानी पाटनियुत्र हुई, जिसका 
'मुद्राराक्षस' में वर्णन है। चीनी यात्री फाह्यान ने, जो चन्द्रगुप्तविक्रमा दित्य द्वितीय 
के समय में भारत आया था, मगध राज्य की बड़ी प्रशंसा की है और कद्टा है कि 
सारे भारतवर्ष में यहाँ के लोग सबसे अधिक सुखी और समृद्ध हैं । 

गान्धार--यह सोलह महाजनपदों में से एक था । यान्धार आर्योंकी ही एक 
जाति थी, जो पूर्वी अफगानिस्तान में बस गयी थी । वर्नंमान रावलपिण्डी और 
पेशावर ज़िलों का भूभाग प्राचीनकाल में गान्धार राज्य था। यह सिन्धु के दोनों 
ओर स्थित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी जो प्राचीनकाल में व्यापार और 
विद्या की केन्धरस्थली थी । भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर तक्षशित्रा नाम पड़ा होगा 
और उनके दूसरे पुत्र पुष्कल के नाम पर पृष्करावती। ये दोनों गान्धार देश की 
प्राचीन राजधानियाँ थीं। हुएनत्सांग ने इस देश को पूर्वे से पश्चिम एक हजार मील 
से अधिक और उत्तर से दक्षिण आठ सौ मील से अधिक बताया है। और यह भी कहा 


]04 विशाखदत्त 


है कि यह राज्य अधिक समृद्ध था; यहाँ की जलवायु उष्ण थी और यहाँ के लोग 
भीरु तथा कलाप्रेमी थे । 

चीन अथवा चेदि---पू्व उद्धत श्लोक में चीन और चेदि दोनों पाठ आये हैं । 
डॉ. बिमल चरण लाहा (07, 8. 0. ।,29) के अनुसार चीन हिमालय क्षेत्र में 
चिलात या किरात के उस पार स्थित था । चेदि सुत्तपिटक के अंगुत्तरनिकाय में वणित 
जम्बूढीप के सोलह महाजनपदों में से एक था। यह यमुना के किनारे स्थित था । 
डॉ. लाहा ने इसे आधुनिक बुन्देलखण्ड और उसके समीप का क्षेत्र माना जाता है। 
यह कभी बॉद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान था । दीघनिकाय के अनुसार बुद्ध यहाँ धर्म- 
प्रचार के लिये आये थे । 

हण--रणजीत सीताराम पण्डित ने “द सिग्नेट रिंग! (]06 89० शिं०४) में 
कहा है कि मौयकाल के पूर्व हुण अज्ञात थे। उनके भारत पर आक्रमण स्कन्दगुप्त 
के पूर्व नहीं प्रारम्भ हुए थे। स्कन्दगुप्त ने उनके प्रथम आक्रमण को 455 ई० में 
रोका । ये ऑक्सस (०:४9) और अफ़गानिस्तान के पव॑तीय क्ष त्र में बसे हुए थे और 
इनके आक्रमण भारत के पश्चिमी भाग पर लगातार होते रहते थे और कन्नौज के 
मौखरी तथा थानेसर के वर्ग तवंशीय सम्राटों के लिए ये स्थायी संकटरूप थे । कन्तौज 
के अवन्तवर्मा और थानेसर के महाराज प्रभाकरवद्धंन ने इन्हें पराजित किया और 
प्रभाकरवद्धेन ने 'हुणहरिणकेसरी' की उपाधि घारण की ।१ 

पाटलिपुत्र--मुद्रा राक्षस में पाटलिपुत्र को कुसुमपुर या पुष्पपुर लामों से भी 
मभिहित किया गया है । तेलंग मुद्राराक्षस के संस्करण में पाटलिपुत्र का सात बार, 
कुसुमपुर का लगभग सत्रह बार और पुष्पपुर का एक बार उल्लेख हुआ है। किसी- 
किमी ने द्वितीय अंक में 'ततः समन्तादपरुद्ध कुसुमपुरमवलोवय' यहाँ 'कुसुमपुरम्‌' के 
स्थान पर 'पृष्पपुरम्‌' पाठ माना है। रणजीत सीताराम पण्डित के अनुसार पाटलि 
एक पुष्प का नाम है, जिपकें आधार पर इस नगर का नाम पाटलिपुत्र पड़ा। 
सभवत: इसीलिए नाटक में इसे कुसुमपुर भौर पुष्पपुर भी कहा गया हैं | गह॒ गंगा 
के तट पर बसा हुआ था; क्योकि चन्द्रगुप्त का राजभवन सुगांग-५साद गंगा के 
किनारे स्थित था। पतंजलि ने महाभाष्य में इसे शोण के तट पर स्थित माना है 
(अनुशोणं पाटलिपुत्रम) और चतुर्थ शताब्दी ई० पू० में मेगस्थनीज ने इसे गंगा 
और शोण के संगम पर स्थित बताया है। ताठक में हम इसे गंगा और शोण के 
संगम पर न पाकर गंगा के किनारे पाते हैं। शोण नर्मदा के उद्गम-स्थल से कुछ ही 
दूर अमरकण्टक पठार से निकलकर पहले उत्तर की ओर और फिर पूर्व की ओर 
बहती हुई पटना के पश्चम में गंगा में मिलती हूँ | संभवत: ऐसी ही कुछ स्थिति 
विशाखदत्त के समय में थी; क्योंकि उसे पारकर ही पाटलिपुत्र जाया जा सकता था, 


8. हृणहरिणकेसरी “' प्रभाकरवर्दधनो नाम राजाधिराज: हष॑चरित, उच्छवास 4 


तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति 405 


जैसा कि 'उत्त॒गास्तुंग कूलम्‌” (4/6) इस इ्लोक से ज्ञात होता है । इतिहासकारों 
के अनुसार गंगा के दक्षिण में पाटलि नामक एक ग्राम था । इस ग्राम में दुर्गनिर्माण 
बुद्ध के जीवन-काल में हुआ था, वाद में इस स्थान पर एक विशाल नगर की 
लींव पड़ी, जो पाटलिपुत्र कहलाया और मगध राज्य की राजधानी वबत्ता। मगध 
को पूर्ण वैभव प्रदान करनेवाला अजातशत्रु था। अजातशत्रु की विजयों के कारण 
मगध देश की उत्तरी सीमा हिमालय की तलहटी तक पहुँच गयी थी। फाह्मान जो 
पाँचवी शताब्दी में भारत आया था, इस नगर के अपार वैभव से वहुत प्रभावित 
हुआ था; लेकिन सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री हुएनत्साँग ने इसे घ्वंसावशेष रूप 
में देखा । गुप्तवंशीय राजाओं तक यह मगध की राजधानी थी। 

इस प्रकार विभिन्‍न स्नोतों के आधार पर हम विशखादत्त के समय में भारत 
की स्थिति का दर्शन करते हैं । 


०5 (० +> (४ >> ++ 


], 


2, 


3. 


सन्दर्भ ग्रम्थ- सूची 


. कथासरितृसागर--निर्णय सागर प्रेस, बस्तब्ई 930 

» कादम्बरी--निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 92] 

, कामन्दकीय नोतिसार--(द्वितीय आवृत्ति) आनन्दाश्रम, पूना, 977 
. किरातार्जुनीय--चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, 98] 

. सुकार सम्भव--मोतीलाल बतारसीदास, दिल्ली, 98] 

. कौटिलीय अर्थशास्त्र--हिन्दी अनुवादक : वाचस्पति गैरौला, चौखम्बा 


विद्याभवन, वाराणसी, 982 


. दशरूपक--निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, 94। 
« प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल---विमल चरण लाहाविरचित 


/प्रांडाणां०४! (0०08/भुआ9 ० &7०ंथा। 709' का हिन्दी अनुवाद, 
अनुवादक : रामक्ृष्ण द्विवेदी, उत्तरप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, 
लखनऊ, [972 


, भनुस्मति--चौखम्बासंकृत सिरीज आफ़िस, वाराणसी, 970 
. झुद्राराक्षस--काशिनाथ त्रूयेम्बक तेलंग द्वारा सम्पादित (आठवीं 


आवृत्ति) पाण्दुरंग जीवाजी, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, 935 
मुद्राराक्ष--के. एच. श्लुव द्वारा सम्पादित्त (तृतीय आवृत्ति) 
अरियण्टल बुक एजेन्सी, पूना, 930 

मुद्राराक्षम--मोरेश्वर रामचन्द्र काले द्वारा सम्पादित (तृतीय 
आवृत्ति) बम्बई 96 

मुद्राराक्षम--शा रदारंजन राय द्वारा सम्पादित (द्वितीय आवृत्ति) 
कलकत्ता, 929 


सन्दर्भ प्रस्थ-सूची 07 


4, मुद्राराक्ष क--कनकलाल ठक्कुर विरचित भावबो घिनी-आशुबो घिनी 


5. 


6. 


7. 


8, 
49, 
20. 


24 


22. 


23. 


24. 


25. 
26. 
27. 


286. 
29. 


30. 


3] 


संस्क्त-हिन्दी टीका युक्त, श्री हरिकृष्ण तिबन्ध भवन, बनारस 
घपमिदी 943, 

मुद्राराक्षरम--डों. सत्यक्रत सिह विरचित शशिकला दीकायुत, 
चौखम्बा संस्कृत सिरीज आफ़िस, वाराणसी 954 
मुद्राराक्षष--निरूपण विद्यालंकार द्वारा संस्कृत व्याख्या, हिन्दी 
अनुवाद सहित, साहित्य भण्डार, सुभाष बाजार, मेरठ, 962 - 
मुद्राराक्षस का सांस्कृतिक अनुशीलन--डॉ. ही रालाल शुक्ल, विश्व- 
भारती प्रकाशन, नागपुर 976 

मुच्छकठिक---निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 936 

रघुवंश--निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 925 

वेदिक इण्डेक्स--(भाग !,2): मैंकडानल और कीथ; अनुवादकः 
रामकुमार राय, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी 962 
शिशुपालवध--निर्णय स्तागर प्रेस, बम्बई 940 

संस्कृत नाटक--मूल लेखक ए. बी. कीथ, अनुवादक: उदयभानु सिंह 
मोतीलाल बनारसीदास, दिल्‍ली (द्वितीय संस्करण) 97व 

संस्कृत साहित्य का इतिहास--ए. बी. कीथ, अनुवादक: डा. मंगल- 
देव शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली (द्वितीय संस्करण) 
967 

संस्कृत साहित्य का इतिहास--आचार्य बलदेव उपाध्याय, शारदा 
संस्थान, रवीन्द्रपुरी, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी 973 
सुभाषितत्रिशती--भत्‌ हरि, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 925 
सुभाषितरत्न भाण्डागार--निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 952 
सुवृत्ततिलक--श्षेमेन्द्र, चौखम्बा संस्कृत सिरीज आफ़िस वाराणसी, 
968 

हर्षचरित--वाणभट्ट, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, 98 

मसांडाणज एण एीडडा९श 5िश्लाशणं 7तॉशा07९ 

श विाध्यावचाइलाशांत, शैणाी ॥9] पेशवारडंतवड एशएां, 
पशमत €कात0०), 4974. 

चा०70टां०्त [0 06 5779 ० शाहःन 7०ए४८॥ा95 

0. ५. 702988009॥, (८5४५४ 8॥गं09)] ॥009ए86, 807र289, 
4948 

शान ए्व7६959 

84०९ छए 9. 2#60 पाव्कफाकाता, छाव्डाशव, [92 


]08 विशाखदत्त 


३2. शाएिब 84४8४059 ० ॥6 #ांशाश फ्शाए, 
ऋशछ57 ॥870508700 370 97025 79 7२. 8. 727074, 3ए०फए/ 
छठ66< (07रफ॒क्पाए, 80789. 944. 

33. एणाप्तदवा पांडगए 0 4वाटंधा वात न 
सल्या एरशावाब रिए एाश्पताएएं, का ढकाणा, 
एग्माएथाआफए ण एक८टप्रा9, 950 

34. 52600 579९टावरशाड ० धार 7.॥096076९ ० 6 परांग्रताढ 
(५०. ॥, ॥) एछए प्लण2०९०० सबशाबत, परच्रात्त ०9ाप्ंठ्त, 
[.7700, 874.